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________________ इस प्रकार पृथ्वी आदि ये, आकाशीय विकार संध्या आदि से, भिन्न और मूर्त है, अत: जीवकाय हैं। इतना ही नहीं परन्तु यदि एकेन्द्रिय जीव ही न हों, तो संसार का उच्छेद ही हो जाय । क्योंकि अनादि अनन्त काल से मोक्ष-गमन चालू है, फिर भी यहाँ जीवों का पार नहीं । तो इतने जीव कहां ठहरें ? एकेन्द्रिय शरीर में ठहरना मानना होगा। हिंसा अहिंसा कहां ? प्रश्न - तो फिर जीव-व्याप्त संसार में अहिंसा का पालन कैसे हो ? उत्तर - शस्त्रोपहत बनी हुई पृथ्वी आदि अचेतन है; इनके उपभोग में हिंसा नहीं । वैसे यह भी समझने योग्य है कि निश्चय नय से नियम नहीं कि 'जीव मरे वहाँ हिंसा ही हो, न मरे वहाँ अहिंसा ही हो।' यह भी नियम नहीं कि 'जीव कम हों वहाँ अहिंसक हों, और अधिक हों वहाँ हिंसक ही बना जाय ।' क्योंकि राजादि को मारने के दुष्ट अध्यवसाय वाला पुरूष न मारते हुए भी हिंसक ही है। वैद्य रोगी को कष्ट देते हुए भी अहिंसक ही है। पांच समिति-तीन गुप्तिवाला ज्ञानी मुनि जीव के स्वरूप का और जीवरक्षा की क्रिया का ज्ञाता हो व सर्वथा जीव रक्षा का जाग्रत परिणाम वाला और उसमें यतनाशील हो, और कदाचित् अनिवार्य हिंसा हो भी गई हो, तब भी वह हिंसक नहीं । इसके विपरीत दशा में जीव न भी मरे तो भी हिंसा है, क्योंकि उसके प्रमाद परिणाम अशुभ है। __ अतः अशुभ परिणाम यह हिंसा है; जैसे तंदुल-मच्छादि को हिंसा सोचते रहने से हिंसा लगती है। प्रश्न - तो क्या बाह्य जीव की हत्या हिंसा नहीं ? उत्तर - हिंसा और अहिंसा दोनों में ऐसा है कि - जो बाह्य जीवहत्या अशुभ परिणाम का कार्य हो या कारण हो, वह तो हिंसा है; और ऐसा न हो वह हिंसा नहीं। जैसे निर्मोही को भावशुद्धि के कारण इष्ट शब्दादि विषयों का संपर्क रति के लिए नहीं होता, इसी तरह विशुद्ध मन वाले का अनिवार्य बाह्य जीवनाश हिंसा के लिए नहीं । इस प्रकार पांच भूत सत् सिद्ध होते हैं। इनमें प्रथम चार चेतन हैं, आकाश चेतन नहीं । शास्त्र में 'स्वप्नोपमं वै सकलम्' कहा, वह तो भव्य जीवों को धन, विषय, स्त्री, पुत्रादि जगत की असारता बतानेवाला कथन है, जिससे इसकी आस्था छोड़कर भवभय से उद्विग्न बनकर मोक्ष के लिए प्रयत्न करें । प्रभु के इस प्रकार समझाने से व्यक्त ब्राह्मण भी अब नि:संदेह होकर अपने ५०० विद्यार्थी के परिवार सहित प्रभु के पास दीक्षित बने ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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