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(५) वस्तु का पिछला भाग नहीं दीखता :
( १ ) ' पर भाग नहीं दीखता अतः अग्र भाग नहीं' अग्र भाग दीखने से परभाग सिद्ध होता है ।
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पिछला भाग है अतएव अमुक 'अग्र भाग' कहलाते है । यदि पिछला नहीं तो अगला क्या ? अतः अनुमान से निश्चित सिद्ध ऐसे पिछले भाग का अपलाप करने से अगले भाग का प्रतिपादन स्ववचन - विरुद्ध होगा ।
यह कैसा अनुमान ? उल्टा
( २ ) कहा कि 'वस्तु का अगला ही भाग दीखता है अतः वस्तु नहीं' इसमें दीखता है और नहीं, ऐसा कहना विरुद्ध है । भ्रान्ति से दीखना कहते हो तो गगनपुष्प का अग्रभाग क्यों नहीं दीखता ?
(३) सर्व शून्य तो अर्वाग्- पर, अगला - पिछला इत्यादि भेद कैसे ? यदि कहते हो कि 'पर मत की अपेक्षा से, तो 'सर्वशून्य' मत में स्वमत - परमत का भी भेद है क्या ? इसी तरह भी यदि यह भेद सत् होना स्वीकार्य, तो सर्व शून्यता का भंग ! यदि अस्वीकार्य हो फिर भी व्यवहार मानो, तो आकाशकुसुम में व्यवहार क्यों नहीं ?
(४) यदि सब असत् हो तो अगला भाग भी क्यों दीखता है ? सभी अदृश्य क्यों नहीं ? अथवा सभी द्रश्य क्यों नहीं ? अथवा पिछला दीखे और अगला नहीं, ऐसा क्यों ?
(५) स्फटिकादि में पिछला भाग भी दीखता है, अतः इतना तो सिद्ध होने से सर्व असत् तो नहीं रहा ! यदि इसे भी असत् कहते हो, तो सर्व शून्य की सिद्धि के लिए 'परभाग अदर्शन' हेतु रक्खा है वह गलत सिद्ध होगा; 'सर्वादर्शन' हेतु ही कहना चाहिये । परन्तु वह तो विरुद्ध है, नहीं तो 'सम्पूर्ण नहीं दीखता, अतः सम्पूर्ण असत् है' ऐसा करके दीवार अथवा कुएँ की और आँख बन्द कर चलने लगा, तो कुएँ में गिरोगे, अथवा दीवार से टकराओगे ।
(६) 'पिछला भाग अप्रत्यक्ष होने से नहीं है' ऐसा कहने पर अगला प्रत्यक्ष है अतः कम से कम प्रत्यक्ष साधन इन्द्रिय और विषय की सत्ता प्राप्त होती है ! ये भी यदि असत् हों, तो प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष का विभाग ही घटित नहीं हो सकता ।
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(७) बाकी अप्रत्यक्ष भी वस्तु होती है, जैसे कि 'सभी असत् है क्या ?' ऐसा संशय यह कोई वस्तु है । अगर यह संशय भी असत् हो तो इसका विषय (सर्वशून्यता) क्या ? संशय असत् अर्थात् भूतों का संशय ही नहीं, तो भूत सत् सिद्ध होंगे ! अब यह देखिये कि पिछला भाग अप्रत्यक्ष होने पर भी अनुमान से सिद्ध है। जगत में कई वस्तु अनुमान से मान्य होती है, जैसे कि
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