SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 58
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अगले दिन ठूंस कर खाने से हुआ है । यहाँ आत्मा का साधक अनुमान मिलता है जो प्रत्यक्ष विरोध को अकिंचित्कर सिद्ध करता है । ( २ ) इन्द्रिय भिन्न आत्मा का साधक अनुमान यह, कि जो जिसकी प्रवृत्ति बंद होने के पश्चात् भी स्मरणग- प्रवृत्ति करे, वह उससे भिन्न वस्तु होती है । जैसे - मकान के पांच झरोंखों में से देखने के पश्चात् झरोंखें बंद होने पर भी, स्मरणकर्ता भिन्न व्यक्ति है । जैसे झरोखा स्वयं द्रष्टा नहीं है उसी तरह इन्द्रियां भी स्वयं द्रष्टा नहीं है; क्योंकि 1 (३) इन्द्रियां स्वयं कार्यव्यस्त न होने पर भी, कभी मन अन्यत्र जाने पर अथवा शून्य होने पर, नहीं दीखती । (४) इन्द्रिय व्यापार बन्द होने पर भी देखी हुई वस्तु का स्मरण होता है । (५) इन्द्रियों के द्वारा देखे जाने के पश्चात् चिंतन, विकार, आतुरता अथवा अस्वीकृति आदि संवेदनों का अनुभव करने वाला अन्दर बैठा हुआ कोई और ही है । इससे सूचित होता है कि गवाक्ष की भाँति भूतमय इन्द्रियां ही आत्मा नहीं है, आत्मा तो इन सब साधनभूत पदार्थों का उपयोग करने वाली एक भिन्न व्यक्ति है । (६) जिस तरह किसी को कोई एक गवाक्ष से देख कर दूसरे गवाक्ष में बुलाए, वहाँ इन दोनों गवाक्षों के पास एकीकरण का सामर्थ्य नहीं । अतः एकीकरणकर्ता भिन्न व्यक्ति माना जाता है, ठीक इसी तरफ आँख से किसी को खट्टा आम खाते देखकर जीभ अथवा दांत खट्टे होने का अनुभव होता है, तो उन दोनों इन्द्रियों का सम्मीलित अनुभव करने वाला कोई भिन्न व्यक्ति ही होता है । (७) जैसे किन्ही पांच व्यक्तियों में प्रत्येक को एक एक अलग अलग विषय का ज्ञान हुआ, एक का जो ज्ञान हो वह दूसरे को न हो, फिर भी छठा कोई ऐसा हो कि जिसे इन पांचो का ज्ञान हो, तो वह उन पांचों से भिन्न है, बस इसी तरह पांचों इन्द्रियों से दृष्ट पांचो विषयों का स्मरण कर सकने वाली आत्मा कोई भिन्न ही व्यक्ति होनी चाहिये । ध्यान में रहें कि 'तब क्या यहाँ इन्द्रिय को एक एक ज्ञान भी हो सकता है ? ऐसा प्रश्न उठे, किन्तु ऐसी आपत्ति नहीं, क्यों कि स्वेच्छा से वे इन्द्रियां कुछ भी नहीं कर सकती । आत्मा इसमें मन लगावे तभी इससे ज्ञान होता है । ( ८-९-१०-११ ) ज्ञान ज्ञानपूर्वक होता है यह नियम है तो इस शरीर में होने वाला प्रथम ज्ञान ज्ञानपूर्वक होना चाहिये । इस पूर्वज्ञान का स्वामी आत्मा । वैसे इच्छा में, ऐसे ही देह में; इस प्रकार सुख-दुःख, राग-- -द्वेष, भय-शोकादि में, कि यह किसी Jain Education International ४७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy