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सम्बन्ध से । इस प्रकार उदित (उदय-प्राप्त) कर्म के सम्बन्ध से वेदना होती है अतः कर्म मूर्त होते हैं।
प्रश्न - अच्छे बुरे ज्ञानमय विचारों का तन्दुरस्ती पर असर पड़ता है वहाँ यह नियम कहां रहा ? ज्ञान तो अमूर्त है।
उत्तर - वहाँ भी प्रभाव डालने वाले विचार जिनके सम्बन्ध से सुख-दुःख होता है, वे मूर्त हैं; क्योंकि वे मूर्त मानसवर्गणा से निर्मित मनरूप है।
(४) जो वस्तु आत्मा और आत्मगुण ज्ञानादि से भिन्न हो और बाह्य कारणों से पुष्ट होती हो वह मूर्त है; जैसे-तेल से घड़ा पुष्ट द्रढ़ बनता है, इसी प्रकार सुकृतों से पुण्य और दुष्कृतों से पाप पुष्ट होते हैं । अतः ये पुण्य और पाप मूर्त है । ज्ञानादि से भिन्न इसलिए कहा क्योंकि यह ज्ञान बाह्य वस्तु गुरू पुस्तक, ब्राह्मी आदि से पुष्ट होने पर भी मूर्त नहीं हैं।
(५) जिसका कार्य परिणामी होता है वह स्वयं परिणामी होता है। एवं आत्मादि से भिन्न तथा परिणामी वस्तु मूर्त होती है; जैसे - दूध का कार्य दहीं परिणामी है, छाछ आदि परिणाम में परिणमित होने वाली दही वस्तु है तो दूध स्वयं परिणामी
और मूर्त वस्तु है; इस प्रकार कर्म का कार्य शरीरादि परिणामी वस्तु है, अत: स्वयं कर्म भी परिणामी होने चाहिए और इसीलिए मूर्त ही होते हैं । 'कर्म भी आत्मा का कार्य होता हुआ परिणामी है सो कारणभूत आत्मा भी परिणामी ही होनी चाहिए' ऐसा मत कहिए, चूं कि कर्म अकेली शुद्ध आत्मा का कार्य नहीं, किन्तु पूर्व कर्मयुक्त आत्मा का अर्थात् आत्मा पर लगे पूर्व कर्मो के विपाक का कार्य है और पूर्व कर्म तो मूर्त परिणामी है ही, तो कर्मयुक्त आत्मा भी कदाचित् मूर्त परिणामी है ।
प्रश्न - सुख दुःखादिकी विचित्रता के लिए कर्मों को मानते हो, परन्तु आकाश के बादल, इन्द्रधनुष, संध्या आदि विचित्र विकारों की भाँति ये सुख, दुःखादि स्वाभाविक क्यों नहीं हो सकते ? कर्म की क्या आवश्यकता है?
उत्तर - आकाश के विकार नियत है । संध्या प्रातः व सायं ही होती हैं । बादल विशेष कर वर्षा ऋतु में ही आते हैं । इन्द्र-धनुष भी प्रातः व सायं ही पानी के बादलों में से सूर्यरश्मि पार हो तभी बनता है; जब कि सुख-दुःख अनियमित रूप से भी होते दिखाई देते हैं, अत: उन्हें सहज नहीं कह सकते । इतना ही नहीं आकाशीय विकार भी निश्चित काल और निश्चित संयोगो में ही होते हैं, इससे पता चलता है कि ये सब भी मात्र स्वभाव से नहीं किन्तु कारणवश उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार सुख-दुःख स्वभाव से नहीं परन्तु कर्मरूपी कारण मिलें, तभी होते हैं।
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