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प्रमाण एक प्रकार का अनुमान है। जैसे १०० में ५०-५० का योग है । इससे किसी के पास सौ है ऐसा जानने के पश्चात् यह अनुमान होता है कि उसके पास पचास तो है ही । इस प्रकार बालक की जन्म समय दिखाई देती इष्ट वृत्ति, चैतन्य - स्फुरण आदि कार्यों के पीछे कुछ अदृश्य हेतु सिद्ध होते हैं । आत्मा इन अदृश्य वस्तुओं में से एक है, इस प्रकार संभव प्रमाण से कहा जाता है कि वहां आत्मा हेतुरूप तो है ही ।
ऐतिह्य प्रमाण में विद्वान लोगों से तो आत्मा की मान्यता चली ही आ रही है परन्तु पामर जनता में भी परापूर्व से कहा जाता है कि 'अभी तक जीव गया नहीं, शरीर में जीव है' -आदि । यह कथन ऐतिह्य प्रमाण है ।
आगम- प्रमाण : दर्शनों के मत
अब आगम प्रमाण पर विचार करें । आगम अर्थात् शास्त्र न्याय-दर्शन, वैशेषिक दर्शन, बौद्ध दर्शन, वेदान्त दर्शन, सांख्य दर्शन, योग दर्शन, मीमांसक दर्शन इस प्रकार षट्दर्शनों के भी मिलते हैं । जैन दर्शन के शास्त्र इस पर क्या मत और निर्णय देते इसे देखें ।
आगम प्रमाण में भिन्न २ दर्शन - शास्त्र का कैसा २ स्वरूप मानते हैं इस पर विस्तृत विचार तो आगे किया जायगा, परन्तु संक्षिप्त में इतना समझना है कि
वेदान्त दर्शन वाले - आत्मा को शुद्ध ब्रह्म के रूप में एक ही मानते हैं, परन्तु यह उपयुक्त नहीं है, क्योंकि जगत के जीवों में जो भिन्नता - विचित्रता पाई जाती है, जैसे कि कोई सुखी - कोई दुःखी, कोई ज्ञानी - कोई मूर्ख, कोई पशु - कोई मनुष्य, कोई धर्मात्मा आस्तिक- कोई पापी नास्तिक, कोई हिंसक - कोई दयालु, इस प्रकार आत्मा यदि एक ही हो तो कैसे हो सकता है ? एवं इससे बन्ध - मोक्ष भी घटित नहीं हो सकता ।
सांख्य और योग दर्शन वाले आत्मा - चेतन - पुरुष अनेक तो मानते हैं फिर भी उसे कूटस्थ नित्य- तीनों कालों में परिवर्तन के लिए अयोग्य और उसी से ज्ञानादि गुण विहीन कहते हैं । इसमें तो फिर आत्मा में चैतन्य ही क्या ? आत्मा में मनुष्य देव आदि भव के परिवर्तन क्यों ? बंधन और मोक्ष का क्या ? मोक्ष ही नहीं, तो मोक्षार्थ प्रयत्न फिर किस बात का ?
न्याय वैशेषिक दर्शन वाले :- आत्मा में ज्ञानादि गुण तो मानते हैं परन्तु ज्ञान को सहज गुण नहीं, किन्तु आगन्तुक अर्थात् कारणवश नवीन उत्पन्न होने वाले गुण स्वरूप मानते हैं, कारण न हो तो कोई ज्ञानादि नहीं। वहां प्रश्न पैदा होता है
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