SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 19
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ में कहते हैं, 'हे इन्द्रभूति गौतम ! आप सुखपूर्वक आये है ? प्रभु अनंत ज्ञानी होने से जानते हैं कि 'वचन रूपी प्रथम औषधि की यह पुड़िया इन्द्रभूति की आत्मा में क्या रंग लाएगी और इस पर दूसरी कैसी पुड़िया की आवश्यकता होगी ?' इन्द्रभूति सोचते हैं 'अहा ! मेरा नाम तक ये जानते हैं ? क्यों न जाने ? त्रिलोक में आबालवृद्ध मेरे विख्यात नाम को कौन नहीं जानता ? मेरे नाम से पुकारे, इसमें कोई आश्चर्य जैसी बात नहीं है, मेरे हृदय के संदेह को कह दें तो इन्हें सच्चे सर्वज्ञ मानूँ ।' परमात्मा श्रमण भगवान श्री महावीर देव तो अनंतज्ञानी है । उनसे यह संदेह कहां छिपा है ? तत्क्षण प्रभु कहते हैं - 'हे इन्द्रभूति गौतम ! जीव के अस्तित्व के विषय में क्या तुम्हारा संदेह है कि जगत में जीव जैसी वस्तु होगी या नहीं ? परन्तु तुम वेद की पंक्तियों का अर्थ ठीक ठीक क्यों नहीं समझते ?' ऐसा कह कर प्रभु " विज्ञानघन एव एतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति, न प्रेत्यसंज्ञाऽस्तीति" इन वेद पंक्तियों का उच्चारण करते हैं। अहा ! प्रभु के इस उच्चारण की क्या भव्य ध्वनि थी ? मानों वह महासागर के मंथन की ध्वनि थी, अथवा गंगा 1 महान् बाढ़ की ध्वनि थी या आदि ब्रह्मध्वनि थी । कैसा गंभीर घोषपूर्ण यह हृदयभेदी स्वर था ? इन्द्रभूति को तो मानों ऐसा ही लग रहा था 'अहा ! क्या मैं किसी अन्य जगत में तो नहीं चला आया हूँ ? अथवा यह क्या है ? कैसा यह समवसरण ! कैसे प्रभु के दास बने हुए ये देव ! कैसा जिनेन्द्र का अनुपम रूप ! कैसा यह अलौकिक, अदृश्यपूर्ण और अनुपम कंठ का नाद ! मात्र यह ध्वनि सुनते ही त्रिविध ताप शान्त होता लगता है; मानो दुःखों का अन्त आ रहा हैं । ऐसा लग रहा है कि मानों जीवन भर ऐसा ही सुनते रहें । ऐसी दिव्यवाणी द्वारा किया जाने वाला तत्त्वों का प्रकाश तो फिर न जाने कितना अद्भुत होगा । बात भी सही है त्रिभुवन गुरु श्री अरिहंत देव का अनंतज्ञान, अद्भुत रूप, अनुपम वाणी, अद्वितीय सम्मान और अप्रतिम तत्त्वोंका प्रकाश अवर्णनीय ही होता है अतः जीव स्वाभिमान क्या कर सकता है ? कवि कहते हैं कि जगत में आज तक बहुत ध्यान लगाया परन्तु सब व्यर्थ । अब तो एक मात्र श्री अरिहंत पद का ध्यान धरो " श्री अरिहंत पद ध्याईये, चोत्रीश अतिशयवंता रे, पांत्रीस वाणी गुणे भर्या, बार गुणे गुणवंता रे जिनेश्वर देव को प्राप्त कर के भी यदि भारी अनुमोदन और तीव्र तत्त्वजिज्ञासा न हो तो सब व्यर्थ | इन्द्रभूति के पास तो यह है अतः प्रभु इन्हें समझाते हैं कि तुमने वेद वाक्य का अर्थ इस प्रकार समझा है - 'विज्ञानघन' - चेतना, 'एतेभ्यो भूतेभ्य एव' Jain Education International ܀܀ ?? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003226
Book TitleGandharwad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuvanbhanusuri
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages98
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy