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|| जिनः सर्वमिदं जगत् ।।
मतरी
भक्त की उदासी को उदासी मत समझना। भक्त के विराग को केवल विराग मत समझना। उसके विराग में परमात्मा का राग छिपा है। भक्त की उदासी में परमात्मा की तलाश छिपी है और भक्त के आंसुओं को तुम विफलता के आंसू मत समझना। भक्त के आंसुओं में हजार वसंत छिपे हैं। वे उसकी प्रार्थनाएं हैं, उसकी आशाएं हैं, उसके मनसूबे हैं । भक्त का पतझड़ भी अपने भीतर हजारों वसंत छिपाए हुए है। उस परमात्मा को खोजते, वियोग में एक नहीं, बहुत जन्म बीत गए हैं। मिलन होकर रहेगा। अनंत-अनंत काल भी बीत जाएं विरह में, तो भी मिलन हो कर रहेगा। ऐसी आस्था, ऐसी श्रद्धा हमारी भक्ति है। परमात्मा ही तुम्हारे इश्क की मंजिल है और वह आकाश से आगे है।। सब सीमाओं के पार-असीम से भी पार। सब शब्दों से पार-निःशब्द से भी पार । जहां पंखों की भी जरूरत नहीं रह जाती उड़ने के लिए। भक्त जानता है कि मैं तेरी वजह से हूं, तू ही है मेरे भीतर ! मेरे प्राण तू है। मेरी आत्मा तू है। मैं नहीं हूं-तू है। तैयारी करो-इस यात्रा के लिए। जो जन्मों में नहीं हुआ, वह क्षणों में भी हो सकता है। पुकार चाहिए। इस प्रेम की बेल को परमात्म भक्ति से सींचो ।।
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