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।। न प्रहृष्येत्प्रियं प्राप्य नोद्विजेत् प्राप्य चाप्रियम् ।।
प्रशंसा हो या निंदा, सत्कर्म करते रहो...
एक दिन एक संत अपने शिष्य को लेकर कहीं जा रहे थे। वह रास्ता बाजार से होकर निकलता था। दोनों ओर तरह-तरह की दुकानें लगी थी। संत को देखकर लोग आपस में बातें करने लगे। कुछ उनके सम्मान में उठ खड़े हुए, कुछ बैठे ही रह गए। एक व्यक्ति ने कहा, '' यह महान संत है। इनकी वाणी में अमृत है, जादू है।" उसके साथी ने कहा, ''हाँ इनका प्रवचन सुनने लायक होता है।" अपने शिष्य के साथ संत आगे और आगे बढ़ते रहे। कुछ लोगों ने उन्हें देखकर नाक-भौंह सिकोड़ ली और वे कहने लगे, "यह संत नहीं ढोंगी है, महापाखंडी और धूर्त है।'
इन दोनों प्रकार की बातों का प्रभाव संत पर बिल्कुल नहीं पड़ा। जब वे बाज़ार से बाहर निकल आए तो उनके शिष्य ने पूछा, "गुरुदेव, रास्ते में कुछ लोगों ने आपकी प्रशंसा की तो कुछ अन्य लोगों ने निंदा की परन्तु आप पर उनकी बातों का प्रभाव नहीं पड़ा। आपने कोई प्रतिक्रिया प्रकट नहीं की। ऐसा क्यों ?" संत ने शिष्य को समझाया, "बेटे, यह दुनिया हैं। यह बाज़ार है। बाज़ार में तरह-तरह की वस्तुएँ बिकती है। यदि इन्हें कोई न खरीदे तो क्या होगा ?" शिष्य ने कहा, "वे वस्तुएँ अन्ततः सड़ जाएगी, नष्ट हो जाएगी।" संत ने स्पष्टीकरण पूरा करते हुए कहा, "हाँ, वे नष्ट हो जाएगी। वे लोग अपना-अपना सामान बेच रहे थे। मैंने नहीं खरीदा, प्रशंसा - निंदा पर ध्यान नहीं दिया। वह सब उन्हीं के पास धरा रह गया। मेरा क्या बिगड़ा ? हम अपना सत्कर्म करते रहें, वे अपना।"
शिष्य की शंका का समाधान हो गया था। वह बहुत खुश हुआ।
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