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विवाद का
मूल
अपना दोष देखना अच्छा है और दूसरों के गुण देखना अच्छा है; किन्तु लोग इससे उल्टी बात करते हैं। वे अपने तो गुण ही गुण देखते हैं और दूसरों के दोष देखते हैं। इस प्रकार अपने गुणों पर नजर रखकर वे अभिमानी बन जाते हैं और दूसरों के दोषों पर नजर रखकर वे उनसे घृणा करने लगते हैं।
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अफीम की मनभावन क्यारी के बीच खड़े धतूरे से अफीम के फूलों ने कहा - अबे अड़ा सो तो अड़ा, पर बीच में आ के क्यों खड़ा ?
धतूरा उत्तर में बोला
खड़ा तो मेरी इच्छा से खड़ा, पर तेरी तरह किसी के गले तो नहीं पड़ा ? अफीम के फूलों ने जवाब देते हुए कहा
गले भी पड़ा तो अमीरों के पड़ा, तेरी तरह फकीरों के तो नहीं पड़ा ।।
ऐसी बातचीत का क्या कभी अन्त हो सकता है ? नहीं, अन्त तो तभी सम्भव है, जब दोनों के दृष्टिकोण बदल जायें और दोनों एक दूसरे के गुण देखने लगें और उन गुणों की प्रशंसा करने लगें । दूसरों के गुणों की खोज करने वाली दृष्टि ही निर्मल होती है। वह गुणों को अपनाने के लिए प्रेरित करती है। इससे विपरीत दृष्टि दोषदर्शन के द्वारा दोषदर्शक को भी धीरे-धीरे दुष्ट बनाने में सफल हो जाती है, इसलिए उससे दूर रहना ही श्रेयस्कर है।
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