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किसी तोते को एक तोते वाले ने एक वाक्य बोलना सिखाया - अत्र कः सन्देहः? अर्थात् इसमें क्या शक है?
तोते वाला उस तोते को बेचने के लिए बाजार ले गया। एक आदमी ने उससे उस तोते का मूल्य पूछा; उसने कहा - सौ रुपये। फिर उसने तोते की परीक्षा लेने के लिए तोते से पूछा - क्या तुम संस्कृत जानते हो?
तोता बोला - अत्र कः सन्देहः? फिर उसने पूछा - क्या तुम्हारा मूल्य सौ रुपये है? तोता फिर बोला - अत्र कः सन्देहः?
उस आदमी ने सन्तुष्ट होकर तोता खरीद लिया। उसने तोते वाले को सौ रुपये दे दिये। वह उस तोते को घर ले गया और उसे एक नये पिंजरे में रखा। पर जब उसने यह देखा कि तोता तो हर प्रश्न के उत्तर में एक ही वाक्य बोलता है, तो उसने उससे पूछा - क्या तुम एक ही वाक्य जानते हो?
अत्र कः सन्देहः? तोता बोला। क्या मैं मूर्ख हूँ, जो मैंने तुम्हे सौ रुपयों में खरीदा? आदमी ने पूछा। अत्र कः सन्देहः? तोते का जवाब तैयार था।
उस आदमी को अपनी मूर्खता पर बड़ा क्रोध आया। उसने अपना सिर पीट लिया, पर इसमें उस बेचारे तोते का क्या दोष था? वह तो उतना ही बोल सकता था, जितना उसे सिखाया गया था।
अत्र कः बिना विचारेजो करे, सो पीछे पछताय।
सन्देहः? काम बिगारे आपणो, जग में होत हँसाय||
इसम क्या कहा
अतः उचित तो यही है कि हर काम बहुत सोच समझ कर किया जाय। ॥ वृणुते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।।
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Jai Ede
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