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10 : आनंदघन
कहा जाता है कि यह सुनकर गुस्सा किए बिना बोले, "भाई ! आहार तो खा गये और ले अपने ये कपड़े" - ऐसा कहकर वे कपड़े छोड़कर जंगल में चले गये और वहाँ "आशा औरन की क्या कीजे" यह पद उनके हृदय से फूट निकला ।
उन्नत आध्यात्मिक भावों को व्यक्त करनेवाला आनंदघनजी का यह पद मिलता है । सांसारिक सुखों की माया में डूबे हुए लोगों को आशारहित होकर ज्ञान सुधारस पीने का बोध दिया है । इस पद में कहीं भी जगत के सुख-दुःख के किसी अनुभव की (जरा सी) झलक भी नहीं दीखती है ।
इसी तरह एक राजा के मिलन के समय बुखार को कपड़े में उतारकर उन्होंने उस कपड़े को बगल में रख छोड़ा था । उस कपड़े को काँपते हुए देखकर मिलने के लिए आये राजा ने इसके बारे में पूछा था ऐसी कथा मिलती है । वास्तव में, सिर्फ
आनंदघनजी के बारे में ही नहीं, बल्कि श्री हेमचंद्राचार्य, श्री हरिभद्रसूरि और श्री हीरविजयसूरि के जीवन के बारे में भी ऐसी दंतकथाएँ मिलती हैं ।
आनंदघनजी के जीवन की ऐसी दंतकथाओं को कई लेखकों ने विस्तारपूर्वक और छटादार शैली में निरूपित किया है, ये दंतकथाएँ उनकी अनासक्ति और वैराग्य पूर्ण जीवन को प्रतिबिंबित करती हैं । यहाँ उनके बारे में जो आधारभूत सामग्री मिलती है उसे देखें । मूल नाम
'आनंदघन' यह उपनाम है । उनकी दीक्षाकाल (अवस्था) का नाम लाभानंद है । उनकी चौबीसी पर स्तबक (टबो) लिखनेवाले श्री ज्ञानविमलसूरि बाइस स्तवनों के स्तबक के अंत में लिखते हैं -
"लाभानंदजी कृत स्तवन एतला 22 दीसई छई । यद्यपि हस्यें तोहई आपण हस्ते नथी आव्या । अने आनंदघननी संज्ञा ते स्वनामनी करी छई । ऐहबुं विंग (व्यंग्य) स्वरूप मुक्याथी जणाई छई ते जाणवु ।"
___ इसी तरह श्री देवचन्द्रजी ने 'विचार रत्नसार' पुस्तक में आनंदघनजी के धर्मनाथ जिनस्तवन का
"प्रवचन अंजन जो सदगुरु करे देखें
परम निधान ।” यह चरण अवतरण के रूप में उद्धृत करके “ऐसा श्री लाभानंदजी ने कहा है ।" ऐसा लिखा है।
इस तरह "मेरे प्रान आनंदधन" इस पद में (रचनाकारने) अंत में “लाभ आनंदघन" ऐसा लिखा है, इसमें भी कवि ने अपने लाभानंद नाम की ओर कदाचित संकेत किया है ऐसा मान सकते हैं । उन्होंने अपनी रचनाओं में "आनंदघन" उपनाम रखा है।
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