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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क बनाते थे। क्योंकि वे जानते थे कि दूध में रहा हुआ घी, अरणी की लकड़ी में रही हुई आग, तिलों में रहा हुआ तेल और फूलों में रही हुई वास यानी इत्र, मंथन के बिना नहीं निकलता है। इसी प्रकार आत्मा में रहा हुआ अनन्त ज्ञान स्वाध्याय के बिना नहीं निकलता है। आगम ज्ञान तो परम रामबाण औषधि का काम करता है। जिस प्रकार शरीरगत बीमारी के लिए औषधि काम करती है, ठीक इसी प्रकार हमारी आत्मगत विषय-कषाय की बीमारी को 'स्वाध्याय' जड़-मूल से विनष्ट करता है।
प्रात: काल जगते ही शिष्य गुरु के पास पहुंचकर, दोनों हाथ जोड़कर पूछे, जैसा कि समाचारी अध्ययन में कहा-..
"पुच्छिज्ज पंजलिउडो, कि कायव्वं मए इह । इच्छं निओउयं मंते, वेयावच्चे व सज्झाए।उत्तरा. 26.9 वेयावच्चे निउत्तेणं, कायव्वं अगिलायओ।
सज्झाए वा निउत्तेणं, सव्वदुक्खविमोक्खणे।।उत्तरा. 26.10
अर्थात् दोनों हाथ जोड़कर गुर भगवन्त से पूछे- भगवन् ! मुझे आज क्या करना चाहिए? आप अपनी इच्छा के अनुकूल हमें सेवा या स्वाध्याय में लगाइये। गुरु जिस कार्य में लगाते हैं, शिष्य का कर्त्तव्य है, वह उसी कार्य में सहर्ष लग जाय अर्थात् गुरु ने सेवा में अगर शिष्य को लगा दिया तो अग्लान भाव से सहर्ष महामुनि नन्दीषेण की तरह वैयावृत्त्य करे। स्वाध्याय के लिए प्रेरणा किए जाने पर सब दुःखों से मुक्त कराने वाले स्वाध्याय में महामुनि थेवरिया अणगार की तरह लगकर प्रसन्नता से आगम पढ़े। क्योंकि जीवन का सच्चा साथी स्वाध्याय ही है। जब सब साथी साथ छोड़कर दूर भाग जाते हैं, तब ऐसे विषम वक्त पर भी स्वाध्याय ही हमें सान्त्वना देकर दुःख से मुक्ति दिलाता है और साथ ही मानव को सत्पथ पर आरूढ कर सुखी बनाता
है।
जिस प्रकार शरीर के लिए अन्न, जल और हवा का महत्त्व है उसी प्रकार का महत्त्व जीवन में स्वाध्याय का है। स्वाध्याय के माध्यम से हमारी बुद्धि निर्मल होती है। संशयों का समाधान होता है। अध्यवसाय यानी भावना प्रशस्त बनती है। परवादियों के द्वारा उठाई गई शंकाओं का समाधान करने की शक्ति पैदा होती है। शास्त्रों के पुन:-पुन: पठन-पाठन से आत्म-रक्षा होती है, तप-त्याग के जीवन में वृद्धि होती है। स्वाध्याय ही हमें पूर्व महापुरुषों के निकट लाने का कार्य करता है। अत: हमें निरन्तर स्वाध्याय में ही रत रहना चाहिए। - शास्त्रों में कहा है- “सज्झायम्मि रओ सया।"
स्वाध्याय को नन्दनवन कह सकते हैं। नन्दनवन में जैसे यत्र-तत्रसर्वत्र अनेक किस्म के फूल खिले हुए हैं, जहां पहुंचकर मानव अपनी शरीर गत बीमारी. अशांति, द:ख, दैन्य एवं कष्टों को भलाकर आनन्द-विभोर हो
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