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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक मर्यादापूर्वक चलती आ रही है या जो ज्ञान मर्यादापूर्वक प्राप्त किया जाता है, वह आगम है। आवश्यक नियुक्तिकार ने लिखा है- 'आअभिविधि मर्यादार्थत्वात् अभिविधिना मर्यादया वा गमः परिच्छेद आगमः । "
'गम' शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में देखा जाता है। अमरकोश ने इसे प्रस्थान का पर्याय माना है- यात्रा व्रज्याभिनिर्याणं प्रस्थानं गमनं गमः । जहां मर्यादापूर्वक प्रस्थान है, अनन्त यात्रा का सम्यक् नियम उद्घोषित है या जिसमें अनन्त की ओर प्रस्थान करने के सम्यक् संसाधनों का निर्देश है, उसे आगम कहते हैं।
'आगम' शब्द का प्रयोग जैन एवं जैनेतर परम्पराओं में उपलब्ध है। प्रथम दृष्ट्या जैनेतर परम्परा में आगम शब्द विचारणीय है। जैनेतर परम्परा में आगम
1.1 तंत्रवाङ्मय में आगम-आगमों की परम्परा अनादिकालीन है। लक्ष्मी तंत्र ( उपोद्घात, पृ.१ ) में निर्दिष्ट है कि अनादिकाल से गुरु-शिष्य परम्परा से जो आगत शास्त्र संदर्भ है, वह आगम है। 'आगम' शब्द के मूल में परम्परा ख्याति की प्रधानता है । आप्त इसलिए आप्त कहा जाता है, क्योंकि वह परम्परा प्राप्त एवं कालवशात् उच्छिन्न वस्तु तथ्य को हृदयंगम कर जनजीवन के लिए प्रकट करता है। प्रसिद्धि अथवा निरूढ़ि की परम्परा ही आगम है, जो विशिष्ट वाक्य रचनाओं के रूप में निबद्ध तथा महापुरुषों के अनुष्ठानों में, कृत्यों में अनिबद्ध रूप से देखी जा सकती है। स्वच्छन्द तंत्र में आगम लक्षण का निर्देश है
अदृष्टविग्रहात् शान्ताच्छ्विात्परमकारणात् । ध्वनिरूपं विनिष्क्रान्तं शास्त्रं परमदुर्लभम् ।। अमूर्ताद् गगनाद्यद्वन्निर्घातो जायते महान् । शांतात्संविन्मयात् तद्वच्छब्दाख्यं शास्त्रम् ।। अर्थात् अदृष्ट विग्रह, अमूर्त्त, गगनवत् सर्वव्यापी जगत् के परमकारण ज्ञानमय शिव से समुत्पन्न परमदुर्लभ ध्वनि रूप शब्द शास्त्र आगम है।
इसी तरह का रुद्रयामल तंत्र में भी निर्देश मिलता है
आगतः शिववक्त्रेभ्यो गतश्च गिरिजानने ।
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मग्नश्च हृदयाम्भोजे तस्मादागम उच्यते । ।
अर्थात् परम शिव के मुख से उत्पन्न एवं गिरिजामुख से आगत ज्ञान को आगम कहते हैं ।
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शास्त्रस्य ।
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स्वच्छन्दोद्योत में कथित है कि 'आ समन्तात् गमयति अभेदेने विमृशति परमेशं स्वरूपं इति कृत्वा परशक्तिरेवागमः तत्प्रतिपादकस्तु शब्दसंदर्भः तदुपायत्वात्
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