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________________ 56EMARATHI जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क हो रहे हैं। प्रो. याकोबी द्वारा प्रयुक्त कुछ और विशेष प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं जो संपादन की दृष्टि से विशिष्ट प्रकार के हैं। यह तुलना ऐसे प्रयोगों की है जिनमें व्यंजनों को याकोबी ने टेढा (italicise) किया है और उन्हें इस प्रकार समझाया गया है कि प्राचीन ताड़पत्र की प्रतों में मध्यवर्ती व्यंजन यथावत् पाये जाते हैं, परंतु उत्तरकालीन कागज की प्रतों में उनमें महाराष्ट्री प्राकृत के नियमों के अनुसार ध्वनि परिवर्तन ('लोप' और 'ह') कर दिया गया है। शुबिंग महोदय के सामने २८ वर्ष पुराना याकोबी का संस्करण था और उन्होंने याकोबी की तुलना में मूल ग्रंथ की अन्य हस्तप्रतें भी प्राप्त की थीं, चूर्णी और वृत्तियों का भी उपयोग किया था, तब फिर भाषा के प्राचीन रूपों को क्यों बदल डाला? होना तो ऐसा चाहिए था, कि याकोबी के सिवाय उपयोग में ली गयी अन्य प्रतों में जहां-जहां पर भी भाषिक दृष्टि से प्राचीन पाठ (पालि के समान) मिलते थे उन्हें स्वीकार करके संशोधन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था, परंतु इसके बदले में उन्होंने अर्धमागधी की शब्दावली को पूर्णत: महाराष्ट्री में बदल दिया। जब उन्होंने 'इसिभासियाई' का सम्पादन किया तो उसमें भी अनेक स्थलों पर मिल रहे मौलिक प्रयोग वैसे ही रखे, उन्हें आचारांग की तरह क्यों नहीं बदला और न ही बाद में इस विषय संबंधी कोई स्पष्टीकरण ही प्रकाशित किया। इसका क्या कारण माना जाना चाहिए? प्रमाद या शैथिल्य या अज्ञानता या अवहेलना? प्रो. याकोबी के द्वारा स्वीकृत इस प्रकार के प्रयोगों की विपुलता में से कुछ उदाहरण तुलनात्मक दृष्टि से देखिएयाकोबी शुब्रिग पिशल तुलनात्मक प्राकृत व्याकरण का पेरेग्राफ १.१.१.२ अन्नतरीओ अन्नयरीओ अन्नयरीओ ४३३ १.५.१.१ अविजाणतो अविजाणओ अविजाणओ १.२.१.३ जीविते जीविए जीविए ३५७ १.१.१.२ नायं नायं ३४९ १.२.१.१ धूता धूया धूया ११.५.३ पवुच्चति पवुच्चइ पवुच्चइ ५४४ १.२.१.१ पिता पिया पिया ३९१ १.१.५.३ मुच्चइ मुच्चइ ५६१ १.१.५.४ विहिंसति विहिंसइ विहिंसइ ५०७ १.६.५.४ वदंति वयंति वयन्ति ४८८ इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रो. शुबिंग महोदय ने और उनके पूर्व प्रो. पिशल महोदय ने अर्धमागधी प्राकृत के मध्यवर्ती व्यंजनों में परिवर्तन करके या हस्तप्रतों में से ऐसा पाठ स्वीकार करके अर्धमागधी प्राकृत के साथ ३९८ नातं मुच्चति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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