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________________ जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क सर्वप्रथम तो यह ज्ञातव्य होना चाहिए कि हमारे मध्यकालीन प्राकृत व्याकरणकारों ने अर्धमागधी के लिए कोई विशिष्ट व्याकरण ही नहीं लिखे जिसके कारण महाराष्ट्री प्राकृत के मध्यवर्ती व्यंजनों के परिवर्तन के जो नियम थे वे ही नियम अर्धमागधी प्राकृत पर भी लागू कर दिये गये । आगमों की हस्तप्रतों (प्राचीन और अर्वाचीन) में जहां-जहां पर भी पालि के समान प्रयोग (मध्यवर्ती व्यंजनों में ध्वनिपरिवर्तन नहीं होने के पाठ ) मिलते थे, उन्हें क्षतियुक्त मानकर उनके बदले में महाराष्ट्री की शब्दावली को ही अपनाया जाने लगा। उदाहरण के लिए देखिए प्रो. हर्मन याकोबी के और शुबिंग के आगमों में प्राचीनतम माने जाने वाले आचारांग के प्रथम श्रुत स्कंध के संस्करण के कतिपय पाठ 54 अध्याय का पेरा नं. १.२.३.२ १.४.४.१ १.१.५.७ १.५.५.१ १.२.३.५ १.२.१.३ १.९.४.१ १.४.३.१ १.१.६.१ १.२.१.३ १.९.१.१ १.१.६.२ १.१.६.३ १.७.१.३ १.१.५.२ १.९.२.१५ आतुर पभिति ततिय याकोबी के पाठ लंडन 1882 ए.डी. Jain Education International अकुतोभयं परितावं एते सव्वतो अवहरति वेदेति ओमोदरिय धम्मविदु पवाद वेदेति वदिस्सामि विदित्ता समादाय आउरे पभिइ तइय ब्रिंग के पाठ लिप्जिग 1910 आउर पभिइ तइय (-त्-) अकुओभयं परियाव एए सव्वओ अवहरइ वेदे असाधू अधं अधोवियडे अब हम नीचे पिशल के 'प्राकृत भाषाओं का तुलनात्मक व्याकरण' और महावीर जैन विद्यालय, बंबई के संस्करण के पाठ भी दे रहे हैं पिशल शुब्रिंग पिशल म. जै. विद्यालय ( त् ) (--) ओमोयरिय धम्मविउ पवाय वेएइ वइस्सामि विइत्ता समायाय (−ध्―) असाहू अहं अहेवियडे For Private & Personal Use Only आतुर पभिति ततिय www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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