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सम्पादकीय
जिनभाषित वाणी के अभिप्रेत अर्थ को ग्रहण कर गणधरों एवं उनके अनन्तर स्थविर मुनियों ने जिन्हें शब्द रूप में गूंथा, वे ही ग्रन्थ 'आगम' नाम से जाने जाते हैं। 'आगम' शब्द का यह अर्थ जैनागमों के संदर्भ में है। वैसे 'आगम' मात्र जैन धर्म-दर्शन का शब्द नहीं है, इसका प्रयोग शैव, न्याय, सांख्य आदि जैनेतर भारतीय दर्शनों में भी हुआ है। 'आगम' शब्द प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान आदि प्रमाणों की भांति एक पृथक प्रमाण है। कुछ बातें/प्रमेय जब प्रत्यक्ष एवं अनुमान से न जान सकें, तो उन्हें 'आगम' से जाना जा सकता है। वेद को प्रमाण मानने के संबंध में कथन है- प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते । तं विदन्ति वेदेन, तस्माद वेदस्य वेदता।। अर्थात् जिसे प्रत्यक्ष एवं अनुमान प्रमाण से न जाना जा सके, उसे वेद से जाना जाता है। वेद का यही वैशिष्ट्य है। आगम' प्रमाण का भी यही वैशिष्ट्य है कि यह हमें साधारण इन्द्रियों से एवं मन से होने वाले प्रत्यक्ष ज्ञान तथा तर्क के आधार पर होने वाले अनुमान ज्ञान से भी भिन्न विषयों का यथार्थ ज्ञान कराता है।
आगम' प्रमाण का दूसरा नाम 'शब्द' प्रमाण भी है। आगम या शब्द को प्रमाण मानने वाले न्याय, सांख्य, मीमांसा, वेदान्त, शैव, जैन आदि दर्शन 'आगम' को प्रमाण मानकर भी उसके स्वरूप के संबंध में एकमत नहीं हैं। हाँ 'आप्तवचनम् आगम:' इस लक्षण में तो सबकी सहमति है, किन्तु वह 'आप्त' कौन है, इस संबंध में मतभेद हैं। जैनागमों के संदर्भ में तो तीर्थकर, गणधर एवं स्थविर ही आप्त हैं, तथा उनकी वाणी ही आगम है।
यह आगम-वाणी अहिंसा, सत्य, संयम, तप आदि जीवनमूल्यों को स्थापित करती है। आगम-वाणी इस दृष्टि से अर्थरूप में शाश्वत होती है, किन्तु शब्द रूप में गणधरों एवं स्थविरों द्वारा पुन: पुन: ग्रथित की जाती है। इस दृष्टि से वह अशाश्वत भी है। तीर्थकर संसार के दु:खों से मुक्त होने का मार्ग बतलाते हैं। वह मार्ग तो शाश्वत है, किन्तु प्रतिपादन-कर्ताओं की शब्दावली में अन्तर आ जाता है। जैनधर्म में अर्थ/अभिप्राय का महत्त्व रहा है, वेदों में शब्द का महत्त्व रहा है। धीरे-धीरे जैनधर्म में भी अर्थ की सुरक्षा हेतु शब्दको महत्त्वपर्ण माना जाने लगा।
आगमों की भाषा अर्धमागधी प्राकृत रही है। सभी श्वेताम्बर आगमों की मूलभाषा अर्धमागधी है। तीर्थकर महावीर ते अर्धमागधी भाषा में ही प्रवचन किया है- भगवं च ण अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खई (समवायांग, समवाय ३४, सूत्र २२)। औपपातिक सूत्र, भगवतीसूत्र एवं आचारांगचूर्णि में भी भगवान के द्वारा अर्धमागधी भाषा में प्रवचन करने का उल्लेख मिलता है। दिगम्बर परम्परा भी इस बात से सहमत है कि भगवान महावीर ने
अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया। फिर भी स्थानीय प्रभाव आदि से दिगम्बरों के मान्य ग्रन्थ इस समय शौरसेनी प्राकत में तथा श्वेताम्बरों के
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