SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 518
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती आराधना है ।। २९ ।। है । इसके अनन्तर ग्रन्थकार ने सम्यक्त्व की आराधना का कथन किया 503 सम्यक्त्वाराधना-गाथा ४३ में सम्यक्त्व के पाँच अतिचार कहे हैशंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टि प्रशंसा और अनायतन सेवाँ तत्त्वार्थसूत्र में अनायतन सेवा के स्थान में 'संस्तव' नामक अतिचार कहा है। टीकाकार अपराजितसूरि ने अपनी टीका में अतिचारों को स्पष्ट करते हुए शंका अतिचार और संशयमिथ्यात्व के भेद को स्पष्ट करते हुए कहा है कि शंका तो अज्ञान के कारण होती है उसके मूल में अश्रद्धान नहीं है । किन्तु संशयमिथ्यात्व के मूल में तो अश्रद्धान है। इसी प्रकार मिथ्यात्व सेवन अतिचार नहीं है, अनाचार है, मिथ्यादृष्टियों की सेवा अतिचार है। द्रव्यलोभादि की अपेक्षा करके मिथ्याचारित्र वालों की सेवा भी अतिचार है। गाथा ४४ में उपगूहन, स्थिरीकरण, वात्सल्य और प्रभावना को सम्यग्दर्शन का गुण कहा है। गाथा ४५-४६ में दर्शनविनय का वर्णन करते हुए अरहन्त, सिद्ध, जिनबिम्ब, श्रुत, धर्म, साधुवर्ग, आचार्य, उपाध्याय, प्रवचन और दर्शन में भक्ति, पूजा, वर्णजनन तथा अवर्णवाद का विनाश और आसादना को दूर करना, इन्हें दर्शन विनय कहा है। टीकाकार ने इन सबको स्पष्ट किया है। इनमें 'वर्णजनन' शब्द का प्रयोग दिगम्बर साहित्य में नहीं पाया जाता। वर्णजनन का अर्थ है महत्ता प्रदर्शित करना । टीकाकार ने इसका कथन विस्तार से किया है। गाथा ५५ में मिथ्यात्व के तीन भेद कहे हैं, संशय, अभिगृहीत, अनभिगृहीत । इस प्रकार सम्यग्दर्शन आराधना का कथन करने के पश्चात् गाथा ६३ में कहा है कि प्रशस्तमरण के तीन भेदों में से प्रथम भक्तप्रतिज्ञा का कथन करेंगे क्योंकि इस काल में उसी का प्रचलन है। इसी का कथन इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से है, शेष दो का कथन तो ग्रन्थ के अन्त में संक्षेप से किया है। भक्तप्रत्याख्यान - गाथा ६४ में भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद किये हैंसविचार और अविचार । यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचार भक्तप्रत्याख्यान होता है। सविचार भक्तप्रत्याख्यान के कथन के लिए चार गाथाओं से ४० पद कहे हैं और उनका क्रम से कथन किया है। उन ४० पदों में से सबसे प्रथम पद 'अहं' का कथन करते हुए कहा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy