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भगवती आराधना
पं. कैलाशचन्द्र शास्त्री
अपराजितसूरि की रचना 'भगवती आराधना' दिगम्बर सम्प्रदाय का मान्य ग्रन्थ है । डॉ. सागरमल जी जैन ने इसे 'जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय' पुस्तक में जैनों के लुप्त सम्प्रदाय 'यापनीय' का ग्रन्थ सिद्ध किया है। इस ग्रन्थ का मूलतः नाम 'आराधना' है, भगवती तो विशेषण है, किन्तु 'आराधना' नाम से अनेक कृतियों से इसका वैशिष्ट्य बताने के लिए 'भगवती' विशेषण ग्रन्थ के नाम का ही भाग बन गया। इस ग्रन्थ में पण्डितमरण की प्राप्ति हेतु की जाने वाली आराधना का सुन्दर निरूपण हुआ है। इसका परिचय जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर से १९७८ में प्रकाशित 'भगवती आराधना' की प्रस्तावना से चयन कर संगृहीत किया गया है।
-सम्पादक
प्रस्तुत ग्रन्थ का नाम आराधना है और उसके प्रति परम आदरभाव व्यक्त करने के लिए उसी तरह भगवती विशेषण लगाया गया है जैसे तीर्थंकरों और महान् आचार्यों के नामों के साथ भगवान विशेषण लगाया जाता है । ग्रन्थ के अंत में ग्रन्थकार ने 'आराहणा भगवदी' (गाथा २१६२) लिखकर आराधना के प्रति अपना महत् पूज्यभाव व्यक्त करते हुए उसका नाम भी दिया है। फलत: यह ग्रन्थ भगवती आराधना के नाम से ही सर्वत्र प्रसिद्ध है । किन्तु यथार्थ में इसका नाम आराधना मात्र है। इसके टीकाकार श्री अपराजित सूरि ने अपनी टीका के अन्त में इसका नाम आराधना टीका ही दिया है।
जैसा कि इस ग्रन्थ के नाम से प्रकट है, इस ग्रन्थ में आराधना का वर्णन है । ग्रन्थ की प्रथम गाथा में ग्रन्थकार ने चार प्रकार की आराधना के फल को प्राप्त सिद्धों और अर्हन्तों को नमस्कार करके आराधना का कथन करने की प्रतिज्ञा की है और दूसरी गाथा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहा है। टीकाकार ने अपनी टीका में इनको स्पष्ट किया है।
तीसरी गाथा में संक्षेप से आराधना के दो भेद कहे हैं- प्रथम सम्यक्त्वाराधना और दूसरी चारित्राराधना । चतुर्थ गाथा में कहा है कि दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है। किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान नियम से होता है, परन्तु ज्ञान के होने पर सम्यग्दर्शन के होने का नियम नहीं है।
गाथा ६ में कहा है कि संयम की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है, किन्तु तप की आराधना में चारित्र की आराधना भजनीय है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है तो उसका तप हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ है। अतः सम्यक्त्व के साथ संयमपूर्वक ही तपश्चरण
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