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________________ जैनागमों का व्याख्या साहित्य 94771 ऋषिभाषितसूत्र का उल्लेख है। इस ग्रंथ में गौतम (गोव्रतिक), चण्डीदेवक(चक्रधरप्रायाः-टीका) वारिभद्रक(जलपान करने वाले), अग्निहोत्रवादी तथा जल को पवित्र मानने वाले साधुओं का नामोल्लेख है। क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादियों के भेद-प्रभेद गिनाए गए हैं। पार्श्वस्थ, अवसन्न और कुशील नामक निर्ग्रन्थ साधुओं के साथ परिचय करने का इसमें निषेध है। सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्ति परम्परानुसार भद्रबाहु ने सूर्यप्रज्ञप्ति के ऊपर नियुक्ति की रचना की थी, लेकिन टीकाकार मलयगिरि के कथनानुसार कलिकाल के दोष से यह नियुक्ति नष्ट हो गई है, इसलिए उन्होंने केवल सूत्रों की ही व्याख्या की है। बृहत्कल्प, व्यवहार और निशीथनियुक्ति- बृहत्कल्प और व्यवहार सूत्र पर भी भद्रबाहु ने नियुक्ति लिखी थी। बृहत्कल्पनियुक्ति संघदासगणि क्षमाश्रमण के लघुभाष्य की गाथाओं के साथ और व्यवहारनियुक्ति व्यवहार भाष्य की गाथाओं के साथ मिश्रित हो गई है। निशीथ की नियुक्ति भी निशीथभाष्य के साथ मिल गई है। दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति दशाश्रुतस्कन्ध जितना लघु है उतनी ही लघु दस अध्ययनों पर नियुक्ति लिखी गई है। नियुक्तिकार ने आरम्भ में प्राचीनगोत्रीय अन्तिम श्रुतकेवली तथा दशा, कल्प और व्यवहार के प्रणेता भद्रबाहु को नमस्कार किया है। दशा, कल्प और व्यवहार का यहां एक साथ कथन है। आठवें अध्ययन की नियुक्ति में पर्युषणकल्प का व्याख्यान है। परिवसण, पज्जुसण, पज्जोसमण, वासावास, पढमसमोसरण, ठवणा, जेट्ठोग्गह (ज्येष्ठग्रह) इन पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख किया गया है। उत्तराध्ययननियुक्ति-उत्तराध्ययन सूत्र पर भद्रबाहु ने ५५९ गाथाओं में नियुक्ति की रचना की है। उत्तराध्ययन के पूरे सभी छत्तीस अध्ययनों पर नियुक्ति लिखी गई है। इस नियुक्ति में गंधार श्रावक, तोसलिपुत्र, आचार्य स्थूलभद्र, स्कन्दपुत्र, ऋषि पाराशर, कालक तथा करकंडू आदि प्रत्येक बुद्ध तथा हरिकेशी, मृगापुत्र आदि की कथाओं का उल्लेख किया है, आठ निह्नवों का विस्तार से विवेचन है। भद्रबाहु के चार शिष्यों द्वारा राजगृह में वैभार पर्वत की गुफा में शीत-समाधि ग्रहण किए जाने तथा मुनि सुवर्णभद्र के मच्छरों का घोर उपसर्ग (मशक-परिपीत-शोणित-मच्छर जिनके शोणित को पी गए हों) सहन कर कालगत होने का कथन है। कम्बोज के घोड़ों का उल्लेख है। कहीं-कहीं मनोरंजक उक्तियों के रूप में मागधिकाएं भी मिल जाती हैं। आवश्यकनियुक्ति- आवश्यकसूत्र में प्रतिपादित छह आवश्यकों का यहां विवेचन है। सर्वप्रथम हरिभद्रसूरि ने इस पर शिष्यहिता नाम की वृत्ति लिखी। उनका अनुसरण करके भट्टारक ज्ञानसागर सूरि ने अवचूर्णि की रचना की, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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