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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क ग्रन्थों में - भगवती आराधना, मूलाचार, नियमसार, अष्टपाहुड (सुत्तपाहुड) में; तथा भाष्य साहित्य में - विशेषावश्यकभाष्य में मिलती हैं।
चन्द्रावेध्यक प्रकीर्णक एक पद्यात्मक रचना है। इसमें कुल १७५ गाथाएँ हैं। चन्द्रावेध्यक का उल्लेख नंदिसूत्र एवं पाक्षिक सूत्र तथा नंदिचूर्णि, आवश्यकचूर्णि और निशीथचूर्णि में मिलता है। इसका परिचय पाक्षिक सूत्र की वृत्ति में इस प्रकार दिया है- "चंदावेज्झयं ति इह चन्द्र-यन्त्रपुत्रिकाक्षिगोलको गृह्यते, तथा आ मर्यादया विध्यते इति आवेध्यम् , तदेवावेध्यकम्, चन्द्रलक्षणमावेध्यकं चन्द्रावेध्यकम्, राधावेध इत्यर्थः । तदुपमानमरणाराधना–प्रतिपादको ग्रन्थविशेष: चन्द्रावेध्यकमिति “(पत्र ६३) अर्थात् जिस प्रकार स्वयंवर में ऊँचे खम्भे पर घूमती हुई पुत्तलिका की आँख को बेधने के लिये अत्यन्त सावधानी तथा अप्रमत्तता की प्रधानता होती है तथैव मरण समय की आराधना में आत्मकल्याण के लिये अत्यन्त सावधानी
और अप्रमत्तता होनी चाहिये। चंद्रावेध्यक को राधावेध की उपमा दी गई है क्योंकि इस ग्रन्थ में जो आचार के नियम आदि बताए गए हैं उनका पालन करना चन्द्रकवेध (राधावेध) के समान ही कठिन है। विषयवस्तुः- इस ग्रन्थ में सात द्वारों से निम्न सात गुणों का वर्णन किया गया हैं -- (१) विनयगुण (२) आचार्य गुण (३) शिष्य गुण (४) विनयनिग्रह गुण (५) ज्ञान गुण (६) चारित्रगुण (७) मरणगुण।
विनयगुण का निरूपण गाथा ४ से २१ में हुआ है। विद्याप्रदाता गुरु का अनादर करने वाले अविनीत शिष्य की विद्या निष्फल होती है तथा वह संसार में अपकीर्ति का भागी बनता है। अविनीत शिष्य के दोषों तथा विनीत शिष्य के गुण और उससे लाभ का अत्यन्त हृदयहारी चित्रण इसमें हुआ है। विद्या और गुरु का तिरस्कार करने वाले अविनीत शिष्य को ऋषिघातक तक कहा है:
विज्जं परिभवमाणो आयरियाणं गुणेऽपयासितो।
रिसिघायगाण लोयं वच्चइ मिच्छत्तसंजुत्ते।। गाथा,1. यहाँ विनय का अर्थ विद्या से लिया गया प्रतीत होता है जैसा कि महाकवि कालिदास ने रघुवंश के प्रथम सर्ग में "प्रजानां विनयाधानाट् रक्षणाद् भरणादपि स पिता'' कहकर विनय का अर्थ विद्या-शिक्षा किया है। विद्या-शिक्षा आदि की सम्पूर्ण व्यवस्था राजा के द्वारा की जाने से राजा को प्रजा का पिता कहा है। आचार्यगुण का निरूपण गाथा २२ से ३६ तक हुआ है जिनमें आचार्य को पृथ्वी सम सहनशील, मेरु सम अकंप, धर्म में स्थित, चंद्र सम सौम्य, शिल्पादि कला पारंगत तथा परमार्थ प्ररूपक प्रस्तुत किया गया है जिनका आदर करने से होने वाले लाभों का भी उल्लेख किया है।
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