SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 478
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रकीर्णक-साहित्य : एक परिचय २. आतुरप्रत्याख्यान ३. प्रकीर्णक माने जाते है:- १. चतु: शरण महाप्रत्याख्यान ४. भक्तपरिज्ञा ५. तन्दुलवैचारिक ६. संस्तारक गच्छाचार ८. गणिविद्या ९. देवेन्द्रस्तव १०. मरणसमाधि । ७. (१०) (११) मुनि पुण्यविजय ने चार अलग-अलग सन्दर्भों में प्रकीर्णकों की अलग-अलग सूचियाँ प्रस्तुत की हैं। 1 कुछ ग्रन्थों में गच्छाचार और मरण समाधि के स्थान पर चन्द्रवेध्यक और वीरस्तव को गिना गया है, कहीं भक्तपरिज्ञा के स्थान पर चन्द्रवेध्यक को गिना गया है। इसके अतिरिक्त एक ही नाम के अनेक प्रकीर्णक भी उपलब्ध होते हैं यथा 'आउर पच्चक्खाणं'। आतुर प्रत्याख्यान के नाम से तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। मुनि पुण्यविजय के अनुसार प्रकीर्णक नाम से अभिहित २२ ग्रन्थ हैं: -- (१) चतु:शरण (२) आतुरप्रत्याख्यान (३) भक्तपरिज्ञा ( ४ ) संस्तारक (५) तंदुलवैचारिक (६) चन्द्रवेध्यक (७) देवेन्द्रस्तव (८) गणिविद्या ( ९ ) महाप्रत्याख्यान (१०) वीरस्तव (११) ऋषिभाषित (१२) अजीवकल्प (१३) गच्छाचार (१४) मरणसमाधि (१५) तीर्थोद्गालिक (१६) आराधनापताका (१७)द्वीपसागरप्रज्ञप्ति (१८) ज्योतिष्करण्डक (१९) अंगविद्या (२०) सिद्धप्राभृत (२१) सारावली (२२) जीवविभक्ति नंदी और पाक्षिकसूत्र में उत्कालिक सूत्रविभाग में देविंदत्थय, तंदुलवेयालिय, चंदावेज्झय, गणिविज्जा, मरणविभत्ति मरणसमाहि आउरपच्चक्खाण, महापच्चक्खाण, ये सात नाम और कालिक सूत्रविभाग में इसि भासियाई, दीवसागरपण्णत्ति ये दो नाम इस प्रकार ९ नाम पाये जाते हैं। कतिपय प्रमुख प्रकीर्णकों का परिचय प्रस्तुत है: 1. देविंदत्थओ - देवेन्द्रस्तव : नंदिसूत्र और पाक्षिक सूत्र में निर्दिष्ट देवेन्द्रस्तव कुल ३११ गाथाओं में निबद्ध है। अत्यन्त ऋद्धि सम्पन्न देवगण भी सिद्धों की स्तुति करते हैं यही इस ग्रन्थ का सारांश है। संवत् १९८० में रचित आचार्य श्री यशोदेवसूरि कृत पाक्षिकवृत्ति में इसका परिचय उपलब्ध है :- 'देविदत्थओ त्ति देवेन्द्राणां चमरवैरोचनादीनाम् स्तवनं भवन स्थित्यादि स्वरूपादिवर्णनं यत्रासौ देवेन्द्रस्तव इति । देवलोकों का वर्णन और इन्द्रों द्वारा स्तुत्य इस प्रकार समासविग्रह परक दोनों विषयों का वर्णन इस ग्रन्थ में है । 463 विषयवस्तुः:- श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के समय में शास्त्रज्ञाता कोई श्रावक अपने घर में प्रातः स्तुति करता है और उसकी पत्नी हाथ जोड़े सुनती है | श्रावक के वक्तव्य में बत्तीस देवेन्द्र आते हैं जिन्हें लक्ष्य कर श्रावक पत्नी देवेन्द्रों के नाम, स्थान, स्थिति, भवनपरिग्रह, विमान संख्या, भवन संख्या, नगर संख्या, पृथ्वी बाहुल्य, भवनादि की ऊँचाई, विमानों के वर्ण, आहार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy