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|प्रकीर्णक-साहित्य : एक परिचय
461 के अनुरूप ही है तथापि उसमें गणिविद्या के स्थान पर आणविभत्ति नाम है, सूर्यप्रज्ञप्ति को वहाँ कालिकसूत्र में गिना है और नंदिसूत्र के अतिरिक्त भी ७ और नाम वहाँ हैं जिनका उल्लेख स्थानांग व व्यवहारसूत्र में है।
षट्खण्डागम की धवलाटीका में भी १९ प्रकीर्णकों के नाम हैं। इसमें १२ अंग आगमों से भिन्न अंगबाह्य ग्रन्थों को प्रकीर्णक संज्ञा दी है - 'अंगबाहिरचोद्दस पइण्णयज्झाया', उसमें उत्तराध्ययन, दशवैकालिक, ऋषिभाषित आदि को भी प्रकीर्णक ही कहा गया है। प्रकीर्णकों के कुछ नाम जोगनंदी और विधिमार्गप्रपा नामक प्राचीन रचनाओं में भी प्राप्त होते हैं। ऋषिभाषित का सन्दर्भ समवायांग, तत्त्वार्थस्वोपज्ञभाष्य आदि में भी प्राप्त होता है।
नंदिसूत्र, स्थानांगसूत्र, व्यवहारसूत्र, धवला, पाक्षिक आदि सूत्रों में गिनाए गये अनेक ग्रन्थों का क्रमश: विच्छेद होता रहा, साथ ही कई श्रेण्य मान्य शास्त्रग्रन्थ प्रकीर्णकों की श्रेणी में जुड़ते भी गये अत: सर्वमान्य रूप से प्रकीर्णकों की संख्या निश्चित नहीं हो सकी। ग्यारह अंग, बारहवें दृष्टिवाद
और आवश्यक सूत्रों के नामों के बारे में कोई विवाद नहीं रहा और इन्हें कभी प्रकीर्णक संज्ञा भी नहीं दी गई। नंदिसूत्र में वर्णित जैन आगम साहित्य के वर्गीकरण के अनुसार प्रकीर्णकों के रूप में स्वीकृत नौ ग्रन्थ कालिक और उत्कालिक इन दो विभागों के अन्तर्गत उल्लिखित हैं
आगम
अंग प्रविष्ट
अंग बाह्य
आवश्यक आवश्यक व्यतरिक्त
कालिक उत्कालिक
आचारांग - सूत्रकृतांग स्थानांग समवायांग व्याख्याप्रज्ञप्ति ज्ञाताधर्मकथांग उपासकदशांग अन्तकृद्दशांग अनुत्तरौपपातिकदशा प्रश्नव्याकरणदशा विपाकदशा दृष्टिवाद
सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वंदना, प्रतिक्रमण कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान
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