________________
[454
जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क कुछ प्रकीर्णक अर्वाचीन हैं, किन्तु इससे सम्पूर्ण प्रकीर्णकों की अर्वाचीनता सिद्ध नहीं होती। विषय वस्तु की दृष्टि से प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों पर प्रकाश डाला गया है। जहां तक देवेन्द्रस्तव और द्वीपसागरप्रज्ञप्ति प्रकीर्णक का प्रश्न है, वे मुख्यत: जैन खगोल और भूगोल की चर्चा करते हैं। इसी प्रकार तित्थोगाली प्रकीर्णक में भी जैन काल व्यवस्था का चित्रण विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों के संदर्भ में हुआ है ज्योतिष्करण्डक और गणिविद्या प्रकीर्णक का संबंध मुख्यतया जैन ज्योतिष से है। तित्थोगाली प्रकीर्णक मुख्यरूप से प्राचीन जैन इतिहास को प्रस्तुत करता है। श्वेताम्बर परम्परा में तित्थोगाली ही एकमात्र ऐसा प्रकीर्णक है जिसमें आगमज्ञान के क्रमिक उच्छेद की बात कही गई है। सारावली प्रकीर्णक में मुख्य रूपसे शत्रुजय महातीर्थ की कथा और महत्त्व उल्लिखित है। तंदुलवैचारिक प्रकीर्णक जैन जीवविज्ञान का सुन्दर और संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। इसी प्रकार अंगविद्या नामक प्रकीर्णक मानव शरीर के अंग-प्रत्यंगों के विवरण के साथ-साथ उनके शुभाशुभ लक्षणों का में चित्रण करता है और उनके आधार पर फलादेश भी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार इस ग्रन्थ का संबंध शरीर रचना एवं फलित ज्योतिष दोनों विषयों से है। गच्छाचार प्रकीर्णक में जैन संघ-व्यवस्था का चित्रण उपलब्ध होता है जबकि चन्द्रवेध्यक प्रकीर्णक में गुरु-शिष्य के संबंध एवं शिक्षा-संबंधों क निर्देश है। वीरस्तव प्रकीर्णक में महावीर के विविध विशेषणों के अर्थ के व्युत्पत्तिपरक व्याख्या की गई है। चतु:शरण प्रकीर्णक में मुख्य रूप से चतुर्विध संघ के महत्त्व को स्पष्ट करते हुए जैन साधना का परिचय दिया गय है। आतुरप्रत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, मरणसमाधि, संस्तारक आराधनापताका आराधनाप्रकरण भक्तप्रत्याख्यान आदि प्रकीर्णक जैसाधना के अन्तिम चरण समाधिमरण की पूर्व तैयारी और उसकी साधना क विशेष विधियों का चित्रण प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में जैन विद्या के विविध पक्षों का समावेश हआ है, जो जैन साहित्य के क्षेत्र में उनके मूल्य और महत्त्व को स्पष्ट कर देता है। प्रकीर्णक साहित्य का रचनाकाल
जहां तक प्रकीर्णकों की प्राचीनता का प्रश्न है उनमें से अनेक प्रकीर्णकों का उल्लेख नन्दीसूत्र में होने से वे उससे प्राचीन सिद्ध हो जाते हैं मात्र यही नहीं, प्रकीर्णक नाम से अभिहित ग्रन्थों में से अनेक ते अंग-आगम की अपेक्षा प्राचीन स्तर के रहे हैं, क्योंकि ऋषिभाषित क स्थानांग एवं समवायांग में उल्लेख है। ऋषिभाषित आदि कछ ऐसे प्रकीर्णक हैं जो भाषा-शैली, विषय वस्तु आदि अनेक आधारों पर आचारांग सूत्र के प्रथम श्रुतस्कन्ध को छोड़कर शेष आगमों की अपेक्षा भी प्राचीन हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org