SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 464
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आवश्यक सूत्र H A MITR-448 की भावना जागृत होने लगती है और उस पश्चात्ताप की अग्नि में सभी दोष जलकर नष्ट हो जाते हैं। प्रतिक्रमण की साधना प्रमाद भाव को दूर करने के लिये है। साधक के जीवन में प्रमाद विष है जो साधना के मार्ग को अवरुद्ध कर देता है। इसलिये साधु व श्रावक दोनों का कर्तव्य है कि प्रमाद से बचे और प्रतिक्रमण के द्वारा अपनी साधना को अप्रमत्तता की ओर अग्रसर करे। 5. कायोत्सर्ग __ प्रतिक्रमण आवश्यक के बाद पाँचवां स्थान कायोत्सर्ग है। अनुयोगद्वार सूत्र में कायोत्सर्ग का नाम व्रण-चिकित्सा है। आवश्यक सूत्र में चिन्तन करते हुए लिखा है-संयमी जीवन को अधिक परिष्कृत करने के लिये, आत्मा को माया-मिथ्यात्व और निदान-शल्य से मुक्त करने के लिये, पाप कर्मों के निर्घात के लिये कायोत्सर्ग किया जाता है। कायोत्सर्ग में काय और उत्सर्ग ये दो शब्द हैं जिसका अर्थ है शरीर से ममत्व का त्याग करना। यह अनुभव में आना चाहिये कि शरीर भिन्न है और आत्मा भिन्न है। शरीर जड़ है और आत्मा चेतन है, जो अजर, अमर, अविनाशी है। देह में रहकर देहातीत स्थिति में रहता है। इस पर आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है-- वासी चंदणकप्पो,जो मरणे जीविए य समसण्णो। देहे य अपडिबद्धो,काउस्सग्गो हवइ तस्स। तिविहाणुवसग्गाणं, दिव्वाणं माणुसाण तिरियाणां सम्ममहियासणाए, काउसग्गो हवइ सुद्धो। कायोत्सर्ग के दो भेद आगम साहित्य में बताये हैं- द्रव्य और भाव। द्रव्य कायोत्सर्ग से. तात्पर्य है- शरीर को बाह्य क्रियाओं से मुक्त करके निश्चल व नि:स्पन्द हो जाना। भाव कायोत्सर्ग में दुानों का त्याग कर धर्म तथा शुक्ल ध्यान में रमण करना, मन में शुभ विचारों का प्रवाह बहाना, आत्मा के मूल स्वरूप की ओर गमन करना होता है। कायोत्सर्ग में ध्यान की ही महिमा है। द्रव्य तो ध्यान के लिये भूमिका मात्र है। आचार्य जिनदास आवश्यक चूर्णि में कहते हैं सो पुण काउस्सग्गो दव्वतो भावतो य भवति। दव्वतो कायचेट्ठा निरोहो, भावतो काउसग्गो झाणं।। इसी तरह उत्तराध्ययन सूत्र के समाचारी अध्ययन में बार-बार कहा गया है कि -"काउस्सग्गं तओ कुज्जा, सव्वदुक्खमोक्खणं। कायोत्सर्ग सब दु:खों का क्षय करने वाला है।। कायोत्सर्ग की योग्यता प्रतिक्रमण के पश्चात् ही आती है। प्रतिक्रमण में पापों की आलोचना हो जाने से चित्त पूर्ण रूप से निर्मल बन जाता है, जिससे साधक धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान में एकाग्रता प्राप्त कर सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy