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दशाश्रुतस्कन्धसूत्र
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६-७. तीन प्रकार की शय्या और तीन प्रकार के संस्तारक का ही उपयोग
करना ।
८- ९. साधु के ठहरने के बाद उस स्थान पर कोई स्त्री-पुरुष आयें, ठहरें या अग्नि लग जाये तो भी बाहर नहीं निकलना ।
१०-११ पैर से कांटा या आंख से रज आदि नहीं निकालना।
१२. सूर्यास्त के बाद एक कदम भी नहीं चलना । रात्रि में मल-मूत्र की बाधा होने पर जाने का विधान है।
१३. हाथ-पैर में सचित्त रज लग जाए तो प्रमार्जन नहीं करना और स्वतः अचित्त न हो जाए तब तक गोचरी आदि भी नहीं जाना । १४. अचित्त जल से भी सुख शांति के लिए हाथ पैर प्रक्षालन-निषेध । १५. उन्मत्त पशु भी चलते समय सामने आ जाए तो मार्ग नहीं छोड़ना । १६. धूप से छाया में और छाया से धूप में नहीं जाना ।
प्रथम सात प्रतिमाएँ एक - एक महीनें की हैं। उनमे दत्ति की संख्या १ से ७ तक बढ़ती है। आठवीं, नवीं, दसवीं प्रतिमाएँ सात-सात दिन की एकान्तर तप युक्त की जाती हैं। सूत्रोक्त तीन-तीन आसन में से रात्रि भर कोई भी एक आसन किया जाता है I
ग्यारहवीं प्रतिमा में छट्ठ के तप के साथ एक अहोरात्र का कायोत्सर्ग किया जाता है ।
बारहवीं भिक्षुप्रतिमा में अट्ठम तप के साथ श्मशान आदि में एक रात्रि का कायोत्सर्ग किया जाता है।
अष्टम दशा
इस दशा का नाम पर्युषणाकल्प है। इसमें भिक्षुओं के चातुर्मास एवं पर्युषणा संबंधी समाचारी के विषयों का कथन है। वर्तमान कल्पसूत्र आठवीं दशा से उद्धृत माना जाता है I
नवमदशा
आठ कर्मों में मोहनीय कर्म प्रबल है, महामोहनीय कर्म उससे भी तीव्र होता है । उसके बंध संबंधी ३० कारण यहां वर्णित हैं
सजीवों को जल में डुबाकर, श्वास संधकर, धुआँ कर मारना ।
शस्त्र प्रहार से सिर फोड़कर, सिर पर गीला कपड़ा बांधकर मारना । धोखा देकर भाला आदि मारकर हँसना ।
मायाचार कर उसे छिपाना, शास्त्रार्थ छिपाना ।
मिथ्या आक्षेप लगाना ।
भरी सभा में मिश्र भाषा का प्रयोग कर कलह करना ।
१०-१२.ब्रह्मचारी या बालब्रह्मचारी न होते हुए भी स्वयं को वैसा प्रसिद्ध
करना ।
१-३.
४-५.
६.
७.
८.
९.
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