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________________ | दशाश्वतस्कन्धसूत्र 3951 में दशाश्रुत, बृहत्कल्प और व्यवहारसूत्र की रचना भद्रबाहु प्रथम द्वारा मानी जाती है। भद्रबाहु का काल ई. पू. ३५७ के आस-पास निश्चित है। अत: इनके द्वारा रचित दशाश्रुत आदि का समय भी वही होना चाहिए। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डॉ. जैकोबी और शुबिंग के अनुसार प्राचीन छेदसूत्रों का समय ई. पूर्व चौथी शती का अन्त और तीसरी का प्रारम्भ माना जा सकता है। शुब्रिग" के शब्दों में.."....the old Cheyasuttas....., Significant are oldgrammatical forms..., A metrical investigation made by Jacobi, as was said before, resulted in surmising the origin of the most ancient texts of about the end of the 4th and the beginning of the third century B.C." विच्छेद तित्थोगाली प्रकीर्णक में विभिन्न आगमग्रन्थों का विच्छेद काल उल्लिखित है। इसके अनुसार वीर निर्वाण संवत् १५०० ई. (सन् ९७३) में दशाश्रुत का विच्छेद हुआ है। विच्छेद का तात्पर्य सम्पूर्ण ग्रन्थ का लोप मानना उचित नहीं होगा। इस संबंध में प्रो. सागरमल जैन का कथन अत्यन्त प्रासंगिक है, “विच्छेद का अर्थ यह नहीं है कि उस ग्रन्थ का सम्पूर्ण लोप हो गया है। मेरी दृष्टि से विच्छेद का तात्पर्य उसके कुछ अंशों का विच्छेद ही मानना होगा। यदि हम निष्पक्ष दृष्टि से विचार करें तो ज्ञात होता है कि श्वेताम्बर परम्परा में भी जो अंग साहित्य आज अवशिष्ट हैं वे उस रूप में तो नहीं हैं जिस रूप में उनकी विषय वस्तु का उल्लेख स्थानांग, समवायांग, नन्दीसूत्र आदि में हुआ है।'' तित्थोगाली के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं दशाश्रुतस्कंध सूत्र के विच्छेद का उल्लेख न होना इस तथ्य का प्रमाण है कि इस छेदसूत्र का विच्छेद नहीं हुआ है। स्रोत ___दशाश्रुतस्कन्ध चूर्णि' के अनुसार दशाश्रुत, व्यवहार और बृहत्कल्पसूत्र--ये नवम प्रत्याख्यानपूर्व से उद्धृत किये गये हैं। इस प्रकार इसका स्रोत नवम पूर्व है। विषय वस्तु स्थानांगसूत्र में उल्लिखित दशाश्रुतस्कन्ध की दसों दशाओं के शीर्षक वर्तमान दशाश्रुतस्कन्ध से साम्य रखते हैं। ये दशायें इस प्रकार हैं-१. असमाधि-स्थान, २.शबलदोष ३ आशातना ४.गणिसम्पदा ५.चित्तसमाधि ६ उपासकप्रतिमा ७.भिक्षुप्रतिमा ८.पर्युषणाकल्प ९.मोहनीय स्थान और १०. आयति स्थान। प्रथम दशा में २० असमाधिस्थान हैं। दूसरी दशा में २१ शबलदोष हैं। तीसरी दशा में ३३ आशातनायें हैं। चौथी दशा में आचार्य की आठ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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