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________________ 1384 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | अर्थात् निक्षेप होने का निर्देश मिलता है और इसी का अनुयोगद्वार सूत्र में यत्र-तत्र--सर्वत्र प्रयोग हुआ है। धवला' में अनुयोगों का प्रयोजन पदार्थों का स्पष्टीकरण है। भगवान महावीर ने पहले अर्थ का उपदेश दिया और बाद में गणधरों ने सूत्र की रचना की। सूत्र, अर्थ के बाद में है इसलिए 'अनु' कहलाता है। इस अनु का 'अर्थ' के साथ योग 'अनुयोग' है। सारांश यह है कि शब्दों की व्याख्या करने की प्रक्रिया अनुयोग हैं । इस प्रकार अनुयोगद्वार सूत्र एक महाकोशसे कम नहीं है जो आगम वर्णित तथ्यों, सिद्धान्तों, तत्त्वों को समझने हेतु सम्यक् दिग्दर्शन करता एक अनूठा आगम है। जैन आगम साहित्य को अनेक अनुयोगों में विभक्त किया गया है। बारहवें अंग दृष्टिवाद के परिकर्म, सूत्र, पूवर्गत, अनुयोग और चूलिका ये पांच भेद किये गये हैं। दिगंबर परम्परा में प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, करणानयोग और द्रव्यानुयोग तथा श्वेताम्बर परम्परा में चरणकरणानुयोग, धर्मकथानुयोग, गणितानुयोग और द्रव्यानुयोग इस प्रकार चार अनुयोग हैं। नाम और क्रम भेद से दोनों परम्पराओं में अनुयोग के माध्यम से तत्त्वज्ञान, इतिहास, जैन आचार, कर्म-सिद्धान्त आदि का सुन्दर विवेचन विश्लेषण मिलता है। समग्र आगम साहित्य में अनुयोगों का वर्णन पृथक् एवं अपृथक् रूप से दृष्टिगोचर होता है। प्राचीन काल में प्रत्येक सूत्र की चारों अनुयोगों द्वारा व्याख्या की जाती थी । अनुयोगद्वारसूत्र के रचनाकार आर्यरक्षित से पूर्व श्रुतज्ञान प्रदान करने की परम्परा यह थी कि पूर्वधर व श्रुतधर आचार्य अपने प्रतिभाशाली मेधावी शिष्यों को सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का सहज रूप से बोध करा देते थे, अर्थात् द्वादशांगी सूत्र ज्ञान के साथ-साथ अविभक्त रूप से अनुयोग की दृष्टि से व्याख्या कर देते थे। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण से लिखा है कि आर्य वज्र तक जब अनुयोग अपृथक् थे तब एक ही सूत्र की चारों अनुयोगों के रूप में व्याख्या होती थी। अनुयोगद्वार के रचनाकार आर्यरक्षित अनुयोगद्वार नामक चतुर्थ मूलसूत्र के संकलनकर्ता व रचनाकार माने जाते हैं। आर्य रक्षित के पूर्व आगमों के अनुयोगों के अपृथक् रूप से चली आ रही वाचना.परम्परा पृथक् अनुयोग की व्यवस्था के रूप में उभर कर आई। आर्यरक्षित के अनेकानेक ज्ञानी, ध्यानी, शिष्य समुदाय में चार प्रमुख शिष्य थे– दुर्बलिकापुष्यमित्र, फल्गुरक्षित, विन्ध्य और गोष्ठामाहिल। दुर्बलिकापुष्यमित्र अविरत रूप से स्वाध्याय में लीन रहते थे। अन्य तीन प्रतिभासम्पन्न शिष्यों की प्रार्थना पर पृथक् वाचनाचार्य के रूप में दुर्बलिका पुष्यमित्र को नियुक्त किया गया। नये वाचनाचार्य के सामने समयाभाव के कारण पठित ज्ञान के विस्मरण होने की समस्या आ खड़ी हुई। तब आर्यरक्षित आगम-ज्ञान की असुरक्षा के विचार से चिन्तित हो उठे और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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