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| नन्दीसूत्र और उसकी महत्ता
377 १४७४ की हस्तलिखित प्रति में ग्रन्थाग्र ७०० लिखा है। किन्तु 'जयइ' पद से अन्तिम ‘से तं नन्दी' इस पद तक के पाठ को अक्षरगणना से गिनने पर २०६८६ अक्षर होते हैं, जिनके ६४६ श्लोक १४ अक्षर होते हैं। अगर कहा जाय कि ७०० की गणना आणुन्नानन्दी को लेकर पूरी की गई है, तो उसमें बहुत श्लोक बढ़ते हैं, अत: ऐसा मानना भी संगत नहीं। प्रचलित नन्दीसूत्र का मूलपाठ यदि कौंस के पाठों को मिलावें तो भी ६५० करीब होता है, संभव है कालक्रम से कुछ पाठ की कमी हो गई हो, या लेखकों ने अनुमान से ७०० लिखा हो। कर्ता- नन्दीसूत्र के कर्ता श्रीदेववचाक आचार्य माने जाते हैं। चूर्णिकार श्रीजिनदासगणि आपका परिचय देते हुए लिखते हैं कि 'देववायगो साहुजण-हियट्ठाए इणमाह'- नन्दीचूर्णि (पृ. २०.१ /१२)। इसकी पुष्टि में वृत्तिकार श्री हरिभद्रसूरि का उल्लेख इस प्रकार है- "देववाचकोऽधिकृताध्ययनविषयभूतस्य ज्ञानस्य प्ररूपणां कुर्वन्निदमाह'' फिर-- 'ननु देववाचकरचितोऽयं ग्रन्थ इति' नन्दी हारिभद्रीया वृत्ति (पृ.३७)
उपर्युक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि नन्दीसूत्र के लेखक श्रीदेववाचक आचार्य हैं, किन्तु यह विचारना आवश्यक हो जाता है कि आचार्य श्री ने इसका मौलिक निर्माण किया है या प्राचीन शास्त्रों से उद्धरण किया है?
टीकाकार श्री हरिभद्रसूरि ने मन:पर्यवज्ञान की व्याख्या करते हुए लिखा है कि यह ग्रन्थ देववाचकरचित है, तब अप्रासंगिक गौतम का आमन्त्रण क्यों? इस शंका के उत्तर में आप कहते हैं कि “पूर्वसूत्रों के आलापक ही अर्थ के वश से आचार्य ने रचे हैं' देखो 'पूर्वसूत्रालापका एव अर्थवशाद्विरचिताः'–श्रीमन्नन्दी-हा.वृ. (पृ. ४२)
उपाध्याय समयसुन्दर गणि भी लिखते है- 'अंगशास्त्रों के सिवाय अन्य शास्त्र आचार्यों ने अंगों से उद्धृत किये हैं' देखो- 'एकादश अंगानि गणधरभाषितानि, अन्यागमाः सर्वेऽपि छद्मस्थै अंगेभ्यः उद्धृताः सन्ति'-- पृ.७७, समाचारी शतक। संकलनकर्ता व निर्माता- श्रीदेववाचक आचार्य प्रस्तुत सूत्र के संकलनकर्ता हैं। इन्होंने इसका संकलन किया है, नूतन निर्माण नहीं। उपाध्यायश्री ने अपनी भूमिका में इस विषय को सप्रमाण सिद्ध किया है। टीकाकार श्रीहरिभद्रूसरि जी भी मन:पर्यव ज्ञान की व्याख्या करते हए ‘पूर्व सूत्रों के आलाप को ही आचार्य ने अर्थवश से रचे हैं' ऐसा लिखते हैं, देखो टीका पृ.४२।
दूसरी बात यह है कि नन्दीसूत्र में आये हुए 'तेरासिय' पद का अर्थ चूर्णिकार व वृत्तिकारों ने 'आजीविक सम्प्रदाय' ही किया है। देखो- 'ते चेव आजीविया तेरासिया भणिया' चूर्णि. पृ.१०६ पं.९ और 'त्रैराशिकाश्चा
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