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________________ उत्तराध्ययनसूत्र में विनय का विवेचन 353 जोड़ेगा, नमस्कार करेगा, पधारो करके उच्चारण भी करेगा एवं मन से भी आदर देगा। कुछ ऐसे उदाहरण हैं जिनके न तन में विनय है, न मन में। पुत्र है, शिष्य है, पर विपरीत आचरण करने वाला है। शास्त्र कह रहा है- गृहस्थ को विनय करना पड़ता है, व्यवहार की गाड़ी चलाने के लिए। एक गृहस्थ के यहाँ दूसरा गृहस्थ जन्म, शादी और मृत्यु जैसे प्रसंगों में इसलिए जाता है कि 'मैं जाऊँगा तो वह भी आएगा। मैं नहीं गया तो वह भी नहीं आएगा।' परन्तु आध्यात्मिक दृष्टि से जो स्वावलम्बी है, कार्य करने न करने की जिसे स्वतन्त्रता है, किसी के अनुशासन की जिसे आवश्यकता नहीं, ऐसे व्यक्ति विनय क्यों करें? शास्त्र कह रहा है- यदि श्रुतज्ञान पाना चाहते हो, जीवन में सुख एवं शांति पाना चाहते हो तो विनय का आचरण का विशेषता जीवन चलाने में नहीं, जीवन का निर्माण करने में है। अज्ञान रूप अंधकार को हटाकर नीति और धर्म के माध्यम से जीव का निर्माण कर आत्मोन्मुखी बनना हर व्यक्ति के वश की बात नहीं है। सूत्रों का पठन-पाठन और आगमिक-ज्ञान जीवन चलाने के लिए नहीं, अपितु जीवन निर्माण के लिए उपयोगी है। विनय से जीवन निर्माण वाणी वह जो जीवन का निर्माण करे, जिसमें कोमलता, मधुरता, विनम्रता हो, जो ईर्ष्या-द्वेष की दीवारों को तोड़े और स्नेह-प्रेम की धारा प्रवाहित करे। वाणी एक दूसरे के ज्ञान में सहायक बन सकती है, मुक्ति से जोड़ सकती है। वाणी में, व्यवहार में विनय धर्म आवश्यक है, अन्यथा सड़े कान वाली कुतिया की भांति जहां भी जाएंगे, दुत्कारे जाएंगे-निकाल दिए जाएंगे। उत्तराध्ययन सूत्र में प्रभु ने विनय धर्म को जीवन निर्माण का, आत्म विकास का सूत्र बताया है। विनय धर्म का संदेश उस दिव्यात्मा के समय में जितना उपयोगी था, आज के प्रति भौतिकवादी युग में उसकी उपयोगिता और भी अधिक है। आज विश्व भर में अनुशासनहीनता, अशांति, उच्छंखलता, अनैतिकता और चारित्रिक कमियाँ बढ़ गई हैं। इन्हें दूर करना है तो महावीर की वाणी को, उनके सूत्रों को जीवन में उतारना होगा। अन्यथा वही होगा जो प्रभु ने उत्तराध्ययन सूत्र के पहले अध्याय की चौथी गाथा में फरमाया है-- जहा सुणी पूईकण्णी, णिक्कसिज्जइ सव्वसो। एवं दुस्सीलपडिणीए. मुहरी णिक्कसिज्जइ।।। गाथा में सड़े कान वाली कुतिया से दुष्ट स्वभाव वाले, दुर्विनीत, दुराचारी व्यक्ति की तुलना करते हुए कहा गया है कि जैसे सड़े कानवाली कुतिया को, कान में पीप-रस्सी पड़ जाने या कीड़े पड़ जाने के कारण सभी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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