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________________ 341 | उत्तराध्ययन सूत्र - और मन को अनुशासित, संयमित और अप्रमत्त करके स्वरूपावस्थित करने का मार्ग है। तप के दो मुख्य भेद किए गए हैं- बाह्य और आभ्यन्तर। बाह्य तप ६ प्रकार के हैं- अनशन, ऊनोदरी, भिक्षाचर्या, रसपरित्याग, कायाक्लेश और प्रतिसंलीनता। आभ्यन्तर तप के भी ६ भेद हैं-- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग। बाह्य तप का अभिप्राय शरीर के प्रति आत्मा की संलग्नता-देहासक्ति को मिटाना है। साधक को अनशन आदि बाह्य तपों का आचरण उतना ही करना चाहिए, जिससे शरीर निर्बल न हो, इन्द्रियाँ क्षीण न हों और आत्मा में संक्लेश उत्पन्न न हों। आन्तरिक तपों का उद्देश्य आत्मिक विकारों का शोधन और आत्मा का शुद्धिकरण है, जो विवेक पर आधारित है। जहा महातलागस्स, सन्निरुद्ध जलागमे । उस्सिंचणाए तवणाए, कमेण सोसणा भवे ।।30.5।। एवं तु संजयस्सावि, पावकम्मनिरासवे। भवकोडीसंचियं कम्म, तवसा निज्जरिज्जई। 130.6 ।। बड़े भारी तालाब में पानी आने के मार्ग को रोककर उसका जल उलीचने के बाद सूर्य के ताप से क्रमश: सुखाया जाता है। उसी प्रकार संयमी पुरुष नवीन पाप कर्मों को रोककर तपस्या के द्वारा पूर्व कर्मों को क्षय कर देता एयं तवं तु विहंजे सम्म आयरे मणी। से खिप्पं सव्वसंसारा, विप्पमुच्चइ पण्डिए ।।30.37 ।। दोनों तरह के तप का जो मुनि सम्यक् प्रकार से आचरण करता है, वह पंडित शीघ्र ही संसार के सभी बंधनों से छूट जाता है। 4. चारित्र विधि (चरणविहि-इकतीसवाँ अध्ययन) इस अध्ययन में जीवों को सुख देने वाली चारित्र विधि बतलाई गई है। इसका अर्थ है- चारित्र का ज्ञान करके उसे विवेकपूर्वक धारण करना। इसके आचरण से बहुत से जीव संसार सागर से तिर गए। ___ एगओ विरई कुज्जा , एगओ य पवत्तणं। असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ।।31.2।। असंयम रूप एक स्थान से निवृत्ति करके संयम रूप एक स्थान में प्रवृत्ति करे। चारित्र के अनेक अंग हैं- पांच महाव्रत, पांच समिति-तीन गुप्ति, दशविध श्रमण धर्म, सम्यक् तप, परीषहजय, कषाय विजय, विषय विरक्ति, त्याग, प्रत्याख्यान आदि। चारित्र के उच्च शिखर पर चढने के लिए भिक्षु प्रतिमा, अवग्रह प्रतिमा, पिण्डावग्रह प्रतिमा आदि अनेक प्रतिमाएँ हैं। जिनसे साधक अपनी आत्मशक्ति को प्रकट करता हुआ आगे से आगे मोक्ष की ओर बढ़ता है। जो भिक्षु राग और द्वेष का सतत निरोध करता है, वह संसार में परिभ्रमण नहीं करता। इस अध्ययन में असंयम, राग-द्वेष, बन्धन, विराधना, अशुभ लेश्या, मदस्थान, क्रिया स्थान, कषाय, पांच अशुभ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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