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| उत्तराध्ययन सूत्र
335) और निस्पृहता भिक्षु जीवन की आधारशिला है। उसकी आवश्यकताएँ सीमित होती हैं। वह सतत जागरूक और आत्म-भावों में रमण करता है।
असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइंदिए सव्वओ विप्पमुक्के। अणुक्कसाई लहु अप्पभक्खी, चेच्चा गिह एगचरे सभिक्खू ।।15.16 ||
__अशिल्पजीवी, गृहत्यागी, मित्र और शत्रु से रहित, जितेन्द्रिय, सर्व संगों से मुक्त, अल्पकषायी, अल्पाहारी, परिग्रह त्यागी होकर एकाकी-रागद्वेष रहित होकर विचरता है, वही भिक्षु है।
प्रस्तुत अध्ययन में सदभिक्षु के गुणों का वर्णन किया गया है और यह भी प्रेरणा दी गई है कि भिक्षु के रूप को नहीं उसके आन्तरिक स्वरूप को देखना चाहिए। 4. ब्रह्मचर्य (बंभचेरसमाहिट्ठाणं- सोलहवाँ अध्ययन)
इस अध्ययन में ब्रह्मचर्य के नियम और उसकी साधना के फल बताए गए हैं। जिनशासन में स्थविर भगवन्तों ने ब्रह्मचर्य समाधि के दस स्थान बताए हैं। उनको सुनकर, हृदय में धारण कर, संयम, संवर और समाधि में बहुत दृढ़ होकर मन, वचन और काया से गुप्त, गुप्तेन्द्रिय और गुप्त ब्रह्मचारी होकर सदैव अप्रमत्त रहकर विचरना चाहिए। निर्ग्रन्थों को स्त्री, पशु और नपुंसक युक्त शय्या, आसनादि का सेवन नहीं करना चाहिए।
वास्तव में आत्मा शुद्ध है, स्वरूप में आत्मा आनन्दघन और अक्षय सुख का भण्डार है, परन्तु भोग-संस्कारों के कारण उसका अपना निजी स्वभाव आवृत्त हो गया है। आवरणों को हटाने के साधन इस अध्ययन में बताए गए हैं। इन साधनों को अपनाने से आत्मा को सुख और समाधि की प्राप्ति होती है।
देव दाणव गंधव्वा, जक्ख रक्खस किन्नरा।
बम्भयारिं नमसंति, दुक्करं जे करेन्ति तं ।।16.16 ।। जो दुष्कर व्रत ब्रह्मचर्य की आराधना करता है, उस ब्रह्मचारी को देव, दानव, यक्ष, राक्षस, किन्नरादि देव नमस्कार करते हैं। ब्रह्मचर्य धर्म ध्रुव, नित्य और शाश्वत है। इसका पालन कर अनेक जीव सिद्ध हुए हैं, सिद्ध होते हैं और भविष्य में सिद्ध होंगे। 5. पापी श्रमण की पहिचान (पावसमणिज्ज-सतरहवाँ अध्ययन)
इस अध्ययन में पापी श्रमण कौन होता है, उसका विस्तृत वर्णन किया गया है। पापी श्रमण के लक्षण१. दीक्षित होकर बहुत निद्रालु हो जाना और खा पीकर सुख से सो जाना। २. आचार्य, उपाध्याय से श्रुत और विनय प्राप्त करने के पश्चात् उन्हीं की
निन्दा करना। ३. घमण्डी होकर आचार्य, उपाध्याय की सुसेवा नहीं करना और
गुणीजनों की पूजा नहीं करना।
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