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| उत्तराध्ययन सूत्र -
का 331 11. नारी नारायणी रूपा (रहनेमिज्ज-बावीसवाँ अध्ययन)
इस अध्ययन में भगवान नेमिनाथ और भगवती राजमती के चरित्र का उल्लेख है। इसमें रथनेमि का विचलित होना और राजमती की फटकार से उसका पुन: संयम में स्थिर होना बताया गया है। नारी का उज्ज्वल पक्ष यह है कि वह दया, प्रेम, करुणा और वात्सल्य की मूर्ति है। वह शक्ति स्वरूपा भी है। इसके साथ वह ओज-तेज की स्वामिनी भी है। नारी के नारायणी रूप का दर्शन भी इस अध्ययन में होता है। जब साधक रथनेमि अपनी संयम-साधना में विचलित हुए, तब साध्वी राजमती उनको ओजस्वी शब्दों में उद्बोधन देकर कहती है- “सेयं ते मरणं भवे ।" संयम-साधना से च्युत होने की अपेक्षा मर जाना ही श्रेष्ठ है। साधक रथनेमि पुन: संयम में दृढ़ हो जाते हैं। नारी के कोमल शरीर में संकल्प वज्र के समान कठोर होता है।
राजमती की संकल्पदृढ़ता नारी के लिए आदर्श स्वरूप है। इस अध्ययन के कुछ संदेश यहाँ प्रस्तुत हैं
कोहं माणं निगिण्हित्ता, मायं लोभं च सव्वसो।
इंदियाइ वसे काउं. अप्पाणं उवसंहरे। [22.48 ।। क्रोध, मान, माया और लोभ को जीतकर और पांचों इन्द्रियों को वश में करके आत्मा को प्रमाद से हटाकर धर्म में स्थिर करे।
एवं करेंति संबुद्धा, पंडिया पवियक्खणा।
विणियति भोगेसु, जहा से पुरिसोत्तमो 122.5 | |त्तिबेमि पुरुषोत्तम रथनेमी ने आत्मा को वश में करके मोक्ष पाया। इसी तरह तत्त्वज्ञानी, विचक्षण, पंडित जन भोगों से निवृत्त होकर मुक्त हो जाते हैं।
12. समन्वय का शुद्ध मार्ग (केसिगोयमिज्ज-तेवीसवाँ अध्ययन)
भगवान गौतमस्वामी और केशी कुमार श्रमण का सम्मिलन, प्रश्नोत्तर और श्री केशीकुमार श्रमण का वीरशासन में प्रविष्ट होना इस अध्याय का विषय है।
भगवान पार्श्वनाथ और भगवान महावीर के बीच समय का कोई बहुत बड़ा अन्तराल नहीं था। मात्र २५० वर्षों का ही अन्तर था। इस छोटे से अन्तराल में समय चक्र तेजी से घूमा। भगवान महावीर ने यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाकर श्रमणों के आचार व्यवहार और बाह्य वेशभूषा में कुछ परिवर्तन किए। उस समय भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के शिष्य भी विद्यमान थे।
श्रावस्ती नगरी में ऐसा प्रसंग उपस्थित हुआ कि पार्श्वनाथ की परम्परा के केशीश्रमण अपने शिष्यों सहित पधारे और भगवान महावीर के पट्ट शिष्य गौतम गणधर भी अपने शिष्यों सहित पधार गए। दोनों का लक्ष्य मोक्ष था। पार्श्वनाथ के श्रमण रंग-बिरंगे वस्त्र पहनते और चातुर्याम का
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