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________________ पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा Hઈનાશિપ્યાં રમાવી . હેમખમાં ‘હિમાંશુ पुष्पचूलिका एवं वृष्णिदशा में धर्मकथानक हैं, अतः इन दोनों उपांगों का समावेश धर्मकथानुयोग में किया जा सकता है। पुष्पचूलिका में भगवान पार्श्वनाथ कालीन दश श्रमणियों का वर्णन है जो आर्या पुष्पचूलिका के समक्ष दीक्षित हुई। वृष्णिदशा में वृष्णिवंशीय (यदुवंशीय) १२ राजकुमारों का वर्णन है। पुष्पचूलिका एवं वृष्णिदशा के सभी साधक महाविदेह क्षेत्र से मोक्ष प्राप्त करेंगे। साध्वी डॉ. हेमप्रभा जी ने दोनों आगमों की विषयवस्तु का संक्षिप्त एवं सारगर्भित परिचय दिया है। सम्पादक आर्हत परम्परा में भगवान महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थकर हुए। उन्होंने जो धर्मदेशना दी तथा उनके प्रमुख अन्तेवासी गणधरों ने जिसे सूत्र रूप में संग्रथित किया, वह आज ‘शास्त्र' या 'आगम' के रूप में विश्रुत है। आचार्य देववाचक ने आगम-साहित्य को दो भागों में विभक्त किया है- १. अंग प्रविष्ट और २. अंग बाह्य। अंग प्रविष्ट आगम भगवान महावीर के द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों का गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध संकलन है। ये संख्या में बारह होने से द्वादशांग या द्वादशांगी कहे जाते हैं। द्वादशांगी का दूसरा नाम 'गणिपिटक' भी है। ‘गणि'-गणनायक आचार्य के 'पिटक'-पेटी अथवा अधिकार में रहने से संभवत: ये गणिपिटक के नाम से अभिहित हुए हों। देश, काल की विषम परिस्थिति के कारण बारहवें अंग सूत्र 'दृष्टिवाद' के पूर्ण रूप से विलुप्त हो जाने के कारण वर्तमान में ग्यारह अंग सूत्र ही उपलब्ध हैं। अंग बाह्य आगमों का कालिक एवं उत्कालिक के रूप में विवेचन किया गया है। वर्तमान में उपलब्ध बारह उपांग सूत्रों का समावेश अंग बाह्य में किया जा सकता है। 'पुष्पचूलिका' एवं 'वृष्णिदशा' ये अन्तिम दो उपांग सूत्र हैं, जिनका समावेश 'निरयावलिका' श्रुतस्कंध में किया गया है। विद्वत् मनीषियों का मन्तव्य है कि १. निरयावलिका या कल्पिका २. कल्पावतंसिका ३. पुष्पिका ४. पुष्पचूलिका और ५. वृष्णिदशा या वण्हिदशा-- ये पाँचों उपांग सूत्र पहले निरयावलिका के नाम से ही प्रचलित थे, किन्तु बारह उपांगों का जब बारह अंगों से संबंध स्थापित किया गया तब इन्हें पृथक्-पृथक् परिगणित किया गया। यहाँ यह ध्यातव्य है कि यद्यपि प्रत्येक उपांग, प्रत्येग अंग सूत्र से संबंद्ध माने गए हैं, किन्तु विषयवस्तु, विवेचन आदि की दृष्टि से अंग, उपांगों से भिन्न हैं। एक दूसरे के वास्तविक पूरक भी नहीं हैं। फिर भी इनकी प्रतिष्ठापना किस दृष्टि से की गई है, यह एक अन्वेषणीय विषय है। अस्तु... विषय व्याख्या, विवेचन, विश्लेषण की दृष्टि से आर्यरक्षित सूरि ने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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