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________________ निस्यावलिका आदि सूत्रत्रय 313 उग्र राजकुमारों का जीवन चरित्र वर्णित किया गया है। ये दसों ही राजकुमार श्रमण भगवान महावीर स्वामी के अमृतमय प्रवचन को सुनते हैं, संसार के भोगों से उदासीन बन साधु बन जाते हैं। अंग - साहित्य का अध्ययन कर, तप करते हुए जीवन का अन्तिम समय निकट जान कर, संथारा-संलेखना पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त कर सौधर्मादि देवलोकों में देव रूप मे उत्पन्न हो जाते हैं। ये सभी राजकुमार देवलोक से आय पूर्ण कर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य के रूप में जन्म लेंगे तथा दीक्षित होकर सभी कर्मों का क्षय कर सिद्ध - बुद्ध - मुक्त होंगे। इस प्रकार इस कल्पावतंसिका उपांग में महाव्रतों के पालन से आत्मशुद्धि की प्रक्रिया बतलायी है। जहाँ दस राजकुमारों के पिता कषाय के. वशीभूत होकर चौथी नरक में जाते हैं वहीं ये राजकुमार रत्नत्रय धर्म की सम्यग् आराधना करके देवलोकों में उत्पन्न होते हैं। साधना से मानव महामानव बन सकता है तथा विराधना से नरक के दुःखों का भोक्ता भी बन सकता है, यह प्रेरणा इस उपांग से प्राप्त की जा सकती है। पृष्पिका (पुफिया) यह निरयावलिका का तीसरा उपांग है। इसमें चन्द्र, सूर्य, शुक्र, बहुपुत्रिक, पूर्णभद्र, मणिभद्र, दत्त, शिव, बल और अनादृत ये दस अध्ययन / प्रथम अध्ययन में भ० महावीर का राजगृह में पदार्पण, चन्द्र देव का दर्शन हेतु आगमन, विविध नाट्यों का प्रदर्शन, गणधर गौतम द्वारा जिज्ञासा, भगवान द्वारा चन्द्र देव के पूर्वभव का कथन - - पूर्वभव में प्रभु पार्श्वनाथ के चरणों में अगंजित अनगार बनना. चन्द्र देव बनना आदि का विस्तार से वर्णन किया गया है । चन्द्र देव का भावीं जन्म बतलाते हुए कहा है कि वह देव भव पूर्ण होने पर महाविदेह क्षेत्र में मनुष्य के रूप में जन्म लेकर सिद्धि को प्राप्त करेगा, इसी प्रकार का वर्णन दूसरे अध्याय में सूर्य देव का किया गया है। तीसरे अध्याय में शुक्र देव का वर्णन है, इसने भी भगवान के चरणों में उपस्थित होकर नाटक प्रदर्शित किये। गणधर गौतम की जिज्ञासा पर भगवान ने शुक्र देव का पूर्वभव बतलाया । पूर्वभव के वर्णन में सोमिल ब्राह्मण का वेदों में निष्णात होना, भ. पार्श्वनाथ का वाराणसी पधारना, सोमिल द्वारा यात्रा, यापनीय, सरिसव, मास, कुलत्थ आदि के बारे में जटिल प्रश्न पूछना, भ. पार्श्वनाथ द्वारा स्याद्वाद शैली में सटीक समाधान देना, कुसंगति के कारण सोमिल का पुनः मिथ्यात्वी बन जाना, दिशाप्रोक्षक अर्थात् जल सींचकर चारों दिशाओं के लोकपाल देवों की पूजा करने वाला, बेले-बेले दिशा चक्रवात तपस्या करना, सूर्य के सम्मुख आतापना लेना आदि का वर्णन है । इस अध्याय में चालीस प्रकार के तापसों का वर्णन भी मिलता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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