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| सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति : एक विवेचन
मसाला 3071 के प्रारंभ में जो अठारह गाथाएँ आई हैं, सूर्यप्रज्ञप्ति में वे नहीं हैं। वहाँ “तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिलाए णामं णयरीए होत्था'' इत्यादि ठीक उन्हीं वाक्यों के साथ पाठ प्रारंभ होता है और अन्त तक अविकल रूप में वैसा ही पाठ चलता है, जैसा चन्द्रप्रज्ञप्ति में है।
इसके प्रथम प्राभृत के अन्तर्गत आठ अन्तर प्राभृत हैं। पहले अन्तर प्राभृत की समाप्ति पर "सूरियपण्णत्तीए पढम पाहुडं सम्मत्तं ऐसा उल्लेख है। दूसरे अन्तर प्राभृत के अन्त में 'सूरिय पण्णत्तिस्स पढमस्य बीयं पाहुडं समत्तं'' पाठ है। आगे इसी प्रकार आठवें अन्तर प्राभृत तक उल्लेख है। पहले अन्तर प्राभृत में 'सूरियपण्णत्ति' के षष्ठी विभक्ति के रूप में 'सूरियपण्णत्तीए' आया है, जबकि दूसरे से आठवें अन्तर प्राभृत तक "सूरियपण्णत्तिस्स'' का प्रयोग हुआ है।
तीसरे, चौथे और पांचवे प्राभृत के अंत में 'ततियं' 'चउत्थं' एवं 'पंचमं' पाहडं समत्तं-ऐसा उल्लेख है।
बड़ा आश्चर्य है, छठे प्राभृत के अंत में "चंदपण्णत्तिस्स छटुं पाहुडं सम्मत्तं'' तथा सातवें प्राभृत के अन्त में "चंदपण्णत्तीए सत्तमं पाहुडं सम्मत्तं'' ऐसा उल्लेख है।
आठवें और नौवें प्राभृत के अन्त में सूर्य प्रज्ञप्ति का नामोल्लेख है।
दसवें से उन्नीसवें प्राभृत तक केवल पाहुड़ों की संख्या का सूचन किया गया है।
बीसवें प्राभृत के अन्त में वही छ: गाथाएँ सूर्यप्रज्ञप्ति में हैं, जो चन्द्रप्रज्ञप्ति में हैं।
आगम सूर्यप्रज्ञप्ति के नाम से चल रहा है और इन गाथाओं के पश्चात् “इति चंदपण्णत्तीए वीसमं पाहुडं सम्मत्तं'' ऐसा लिखा है।
उपर्युक्त विवेचन से जो विसगतियाँ प्रकट होती हैं, उन पर विचार करना अपेक्षित है। तथ्यात्मक गवेषणोपक्रम
प्राकृत मेरे अध्ययन का मुख्य विषय रहा है। देश के सर्वाग्रणी प्राकृत- विद्वान्, षट्खण्डागम के यशस्वी संपादक, नागपुर एवं जबलपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत, प्राकृत एवं पालि विभाग के अध्यक्ष, तत्पश्चात् प्राकृत जैन रिसर्च इन्स्टीट्यूट, वैशाली के निदेशक डॉ. एच. एल. जैन से मुझे अनवरत दो वर्ष पर्यन्त प्राकृत पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। कोल्हापुर विश्वविद्यालय एवं मैसूर विश्वविद्यालय के प्राकृत जैनोलोजी विभाग के अध्यक्ष, प्राकृत के महान् विद्वान डॉ. ए.एन. उपाध्ये के संपर्क में रहने का सुअवसर भी प्राप्त हुआ, वैशाली में मैं प्रोफेसर भी रहा। आगे सुप्रसिद्ध विद्वान् प्रोफेसर दलसुखभाई मालवणिया आदि का साहचर्य मुझे प्राप्त होता रहा। प्राकृत से संबद्ध विविधविषयों, विवादास्पद पक्षों पर चर्चाएँ होती रहती।
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