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________________ सूर्यप्रज्ञप्ति-चन्द्रप्रज्ञप्ति : एक विवेचन 305 "जयइ'' (जयति) शब्द द्वारा भगवान् महावीर की सर्वोत्कृष्टता ख्यापित करते हुए उनके प्रति भक्ति प्रकट की गई है। दूसरी गाथा में अर्हत्, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं समग्र साधुओं को वन्दन किया गया है। तीसरी गाथा में चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र का नाम संकेत किया है। उसे पूर्वश्रुत से सार रूप में उद्धृत बतलाया है। चौथी गाथा में भगवान् महावीर के प्रमुख अन्तेवासी गणधर इन्द्रभूति गौतम द्वारा भगवान महावीर के समक्ष जिज्ञासु भाव से पृच्छा की गई है, जिसके समाधान में भगवान द्वारा प्रस्तुत आगमगत समस्त विषयों के विवेचन किये जाने का संकेत है। यहाँ “पुच्छइ जोइसगणराय पण्णत्तिं'' वाक्य में “जोइसगणराय'' पद चन्द्र का बोधक है। पन्नत्ति प्रज्ञप्ति का प्राकृत रूप है। इसका आशय यह है कि चन्द्रप्रज्ञप्ति के विषय में गौतम भगवान् से प्रश्न करते हैं। इन गाथाओं के पश्चात् निम्नांकित रूप में प्रस्तुत आगम का प्रारंभ होता है ___"तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिलाए णाामं णयरीए होत्था, वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए णामं णयरीए बहिया उत्तर पुरत्थिमे दिसीभाए एत्थणं मणिभदं नामं चेईए होत्था, चिराइए-वण्णओ। तीसे णं मिहिलाए णयरीए जियसत्तू नामं राया, धारिणिदेवी, वण्णओ। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा णिग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया।।'' अन्यान्य आगमों की शैली में यहाँ मिथिला नगरी, मणिभद्र चैत्य, जितशत्रु राजा, धारिणी रानी आदि का तथा भगवान महावीर के वहां पदार्पण का एवं भगवान द्वारा धर्म परिषद् को संबोधित करने का संकेत है। आगे भगवान महावीर के प्रमुख गणधर इन्द्रभूति गौतम द्वारा किये गये प्रश्न और भ. महावीर द्वारा किये गये समाधान का आख्यान है। यह पहले से बीसवें प्राभत तक चलता है। बीसवें प्राभृत के अन्त में छ: गाथाओं के साथ प्रस्तुत आगम का परिसमापन होता है। गाथाएँ निम्नांकित हैं "इति एस पागडच्छा, अभव्वजण हियय दुल्लहा होइ णमो। उक्कतिया भगवती, जोतिस्स रायस्स पण्णत्ति।।1।। एस गहिय विसतीथद्धे, गारवियमाणीपडिणीए। अबहुस्सुए न देया, तब्बीवरिए भवे देवा।।2।। सद्धाधिइ उट्ठाणुच्छाह कम्मबलवीरिएपुरिसक्कारेहिं। जो सिक्खि उवसंतो, अभायणे पक्खिवेज्जाहि।।3।। सो पवयण कुल-गण-संघ-बहिरो, नाण-विणय-परिहीणो। अरिहं थेर गणहर मइ किर होंति वालिणो।।4।। तम्हो धिति उट्ठाणुच्छाह-कम्मबलवीरियसिक्खियनाणं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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