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| जैन आगम-साहित्य : एक दृष्टिपात उनमें स्थविर का नाम नहीं आया है। विज्ञों का अभिमत है कि यहां पर स्थविर शब्द का प्रयोग चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु के लिए ही हुआ है।
आचारांग' के गम्भीर अर्थ को अंभिव्यक्त करने के लिए 'आचारचूला' का निर्माण हुआ है। नियुक्तिकार ने पाँचों चूलाओं के नि!हण स्थलों का संकेत किया है।
'दशवैकालिक' चतुर्दशपर्वी शय्यंभव के द्वारा विभिन्न पर्वो से नि!हण किया गया है। जैसे- चतुर्थ अध्ययन आत्म-प्रवाद पूर्व से, पंचम अध्ययन कर्म- प्रवाद पूर्व से, सप्तम अध्ययन सत्य-प्रवाद पूर्व से और शेष अध्ययन प्रत्याख्यान पूर्व की तृतीय वस्तु से उद्धृत किये गये हैं।
द्वितीय अभिमतानुसार 'दशवैकालिक' गणिपिटक द्वादशांगी से उद्धृत है।
___ 'निशीथ' का नि!हण प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व से हुआ है। प्रत्याख्यान पूर्व के बीस वस्तु अर्थात् अर्थाधिकार हैं। तृतीय वस्तु का नाम
आचार है। उसके भी बीस प्राभृतच्छेद अर्थात् उप विभाग हैं। बीसवें प्राभृतच्छेद से 'निशीथ' का नि!हण किया गया है।
पंचकल्पचूर्णि के अनुसार निशीथ के नि!हक भद्रबाहु स्वामी हैं। इस मत का समर्थन आगम प्रभावक मुनि श्री पुण्यविजयजी ने भी किया है।
दशाश्रुतस्कन्ध, बृहत्कल्प और व्यवहार, ये तीनों आगम चतुर्दशपूर्वी भद्रबाहु स्वामी के द्वारा प्रत्याख्यान पूर्व से निर्मूढ़ हैं।
‘दशाश्रुतस्कन्ध' की नियुक्ति के मन्तव्यानुसार वर्तमान में उपलब्ध ‘दशाश्रुत स्कन्ध ' अंग प्रविष्ट आगमों में जो दशाएं प्राप्त हैं उनसे लघु है। इसका निर्वृहण शिष्यों के अनुग्रहार्थ स्थविरों ने किया था। चूर्णि के अनुसार स्थविर का नाम भद्रबाहु है।
'उत्तराध्ययन' का दूसरा अध्ययन भी अंगप्रभव माना जाता है। नियुक्तिकार भद्रबाहु के मतानुसार वह कर्मप्रवाद पूर्व के सतरहवें प्राभृत से उद्धृत है।
__इनके अतिरिक्त आगमेतर साहित्य में विशेषत: कर्म-साहित्य का बहुत सा भाग पूर्वोद्धृत माना जाता है।
नि!हण कृतियों के संबंध में यह स्पष्टीकरण करना आवश्यक है कि उसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थकर हैं, सूत्र के रचयिता गणधर हैं और जो संक्षेप में उसका वर्तमान रूप उपलब्ध है उसके कर्ता वही हैं जिन पर जिनका नाम अंकित या प्रसिद्ध है। जैसे 'दशवैकालिक' के शय्यंभव, ‘कल्प व्यवहार', "निशीथ' और 'दशाश्रुत स्कन्ध' के रचयिता भद्रबाहु हैं।
जैन अंग साहित्य की संख्या के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सभी एक मत हैं। सभी बारह अंगों को स्वीकार करते हैं। परन्तु अंगबाह्य
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