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________________ सूर्यप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति: एक विवेचन 303 आशय भिन्न है। आगमों के साथ संलग्न 'अंग' पद तद्गत विषयों से सम्बद्ध है, जबकि वेदों के साथ संपृक्त 'अंग' पद वेदगत विषयों के प्रकटीकरण, स्पष्टीकरण अथवा विशदीकरण के साधनभूत शास्त्रों का सूचक है। वेदों के विवेच्य विषयों को विशेष स्पष्ट एवं सुगम करने हेतु अंगों के साथ-साथ उनके उपांगों की भी कल्पना की गई। पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्म शास्त्रों का वेदों के उपांगों के रूप में स्वीकरण हुआ। उपवेद वैदिक परम्परा में ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद-इन चारों वेदों के समकक्ष चार उपवेद भी स्वीकार किये गये हैं। वे क्रमश: (१) आयुर्वेद, (२) धनुर्वेद - आयुध विद्या, (३) गान्धर्व वेद - संगीत शास्त्र एवं (४) अर्थशास्त्र - राजनीति विज्ञान के रूप में हैं। विषय - साम्य की दृष्टि से वेदों और उपवेदों पर यदि चिन्तन किया जाए तो सामवेद के साथ तो गान्धर्व वेद की यत् किंचित संगति सिद्ध होती है, किन्तु ऋग्वेद के साथ आयुर्वेद, यजुर्वेद के साथ धनुर्वेद तथा अथर्ववेद के साथ अर्थशास्त्र की कोई ऐसी संगति नहीं प्रतीत होती, जिससे इस 'उप' उपसर्ग से गम्यमान सामीप्य सिद्ध हो सके । दूरान्वित सायुज्य स्थापना का प्रयास, जो यत्र तत्र किया जाता रहा है, केवल कष्ट कल्पना है । कल्पना के लिए केवल इतना ही अवकाश है कि आयुर्वेद, धनुर्वेद तथा अर्थशास्त्र का ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद के साथ संबंध जोड़ने में महिमांकन मानते हुए ऐसा किया गया हो ताकि वेद संपृक्त समादर एवं श्रद्धा के ये भी कुछ भागी बन सकें। जैन मनीषियों का भी स्यात् कुछ इसी प्रकार का झुकाव बना हो, जिससे वेदों के साथ उपवेदों की तरह उनको अंगों के साथ उपांगों की परिकल्पना सूझी हो । कल्पना सौष्ठव या सज्जा - वैशिष्ट्य तो इसमें है, पर जैन उपांग आज जिस स्वरूप में उपलब्ध हैं, उनमें विषयगत सामीप्य की अपेक्षा से तथ्यात्मकता कहां तक है, यह सर्वथा स्पष्ट है। हाँ, इतना अवश्य है, स्थविरकृत अंग बाह्यों में से इन बारह को 'उपांग' श्रेणी में ले लिये जाने से औरों की अपेक्षा इनका महत्त्व समझा जाता है। अब लेख के मूल विषय सूर्यप्रज्ञप्ति एवं चन्द्रप्रज्ञप्ति के संबंध में समालोचनात्मक एवं समीक्षात्मक दृष्टि से ऊहापोह किया जाना अपेक्षित है। चन्द्रप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति छठे उपांग के रूप में स्वीकृत है। इसमें चन्द्र एवं सूर्य के आकार, तेज, गतिक्रम, उदय, अस्त आदि विविध विषयों का विस्तृत वर्णन है। साथ ही साथ अन्य ग्रहों के संबंध में भी आनुषंगिक रूप में विशद विवेचन है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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