SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ | जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति 293 पैदा हुआ है। आवश्यकनियुक्ति, आवश्यकचूर्णि, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्त और चउप्पन्नमहापरिसचरियं" के अनुसार राजसभा में यमक और शमक बहुत ही शीघ्रता से प्रवेश करते हैं। यमक सुभट ने नमस्कार कर निवेदन किया कि भगवान ऋषभदेव को एक हजार वर्ष की साधना के बाद केवलज्ञान की उपलब्धि हुई है। वे पुरिमताल नगर के बाहर शकटानन्द उद्यान में विराजित हैं। उसी समय शमक नामक सुभट ने कहा- स्वामी आयुधशाला में चक्ररत्न पैदा हुआ है, वह आपकी दिविजय का सूचक है। आप चलकर उसकी अर्चना करें। दिगम्बर परम्परा के आचार्य जिनसेन ने उपर्युक्त दो सूचनाओं के अतिरिक्त तृतीय पुत्र की सूचना का भी उल्लेख किया है। ये सभी सूचनाएँ एक साथ मिलने से भरत एक क्षण असमंजस में पड़ गये। वे सोचने लगे कि मुझे प्रथम कौनसा कार्य करना चाहिये? पहले चक्ररत्न की अर्चना करनी चाहिये या पुत्रोत्सव मनाना चाहिए या प्रभु की उपासना करनी चाहिये? दूसरे ही क्षण उनकी प्रत्युत्पन्न मेधा ने उत्तर दिया कि केवलज्ञान का उत्पन्न होना धर्मसाधना का फल है, पुत्र उत्पन्न होना काम का फल है और देदीप्यमान चक्र का उत्पन्न होना अर्थ का फल है। इन तीन पुरुषार्थों में प्रथम पुरुषार्थ धर्म है, इसलिये मुझे सर्वप्रथम भगवान ऋषभदेव की उपासना करनी चाहिये। चक्ररत्न और पुत्ररत्न तो इसी जीवन को सुखी बनाता है पर भगवान का दर्शन तो इस लोक और परलोक दोनों को ही सुखी बनाने वाला है। अत: मुझे सर्वप्रथम उन्हीं के दर्शन करना है। प्रस्तुत आगम में केवल चक्ररत्न का ही उल्लेख हुआ है, अन्य दो घटनाओं का उल्लेख नहीं है। अत: भरत ने चक्ररत्न का अभिवादन किया और अष्ट दिवसीय महोत्सव किया। चक्रवर्ती सम्राट बनने के लिये चक्ररत्न अनिवार्य साधन है। यह चक्ररत्न देवाधिष्ठित होता है। एक हजार देव इस चक्ररत्न की सेवा करते हैं। यों चक्रवर्ती के पास चौदह रत्न होते हैं। यहाँ पर रत्न का अर्थ अपनी-अपनी जातियों की सर्वोत्कृष्ट वस्तुएँ हैं। चौदह रत्नों में सात रत्न एकेन्द्रिय और सात रत्न पंचेन्द्रिय होते हैं। आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवृत्ति में लिखा है कि चक्र आदि सात रत्न पृथ्वीकाय के जीवों के शरीर से बने हुए होते हैं, अत: उन्हें एकेन्द्रिय कहा जाता है। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार ग्रन्थ में इन सात रत्नों का प्रमाण इस प्रकार दिया है। चक्र, छत्र और दण्ड ये तीनों व्याम तुल्य है। तिरछे फैलाये हुए दोनों हाथों की अंगुलियों के अन्तराल जितने बड़े होते हैं। चर्मरत्न दो हाथ लम्बा होता है। असिरत्न बत्तीस अंगुल, मणिरत्न चार अंगुल लम्बा और दो अंगुल चौड़ा होता है। कागिणीरत्न की लम्बाई चार अंगुल होती है। जिस युग में जिस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy