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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक इसी तरह रहने दिये। केश रखने से वे केशी या केसरिया जी के नाम से विश्रुत हुए। पद्मपुराण हरिवंशपुराण में ऋषभदेव की जटाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में ऋषभ की स्तुति केशी के रूप में की गई। वहाँ बताया है कि केशी अग्नि, जल, स्वर्ग और पृथ्वी को धारण करता है और केश विश्व के समस्त तत्त्वों का दर्शन कराता है और प्रकाशमान ज्ञानज्योति है।
भगवान ऋषभदेव ने चार हजार उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय वंश के व्यक्तियों के साथ दीक्षाग्रहण की। पर उन चार हजार व्यक्तियों को दीक्षा स्वयं भगवान ने दी, ऐसा उल्लेख नहीं है। आवश्यकनियुक्तिकार ने इस संबंध में यह स्पष्ट किया है कि उन चार हजार व्यक्तियों ने भगवान ऋषभदेव का अनुसरण किया। भगवान की देखादेखी उन चार हजार व्यक्तियों ने स्वयं केशलुंचन आदि क्रियाएँ की थीं। प्रस्तुत अगाम में यह भी उल्लेख नहीं है कि भगवान ऋषभदेव ने दीक्षा के पश्चात् कब आहार ग्रहण किया? समवायांग में यह स्पष्ट उल्लेख है कि संवच्छरेण भिक्खा लद्धा उसहेण लोगनाहेण। इससे यह स्पष्ट होता है कि भगवान् ऋषभदेव की दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् एक वर्ष से अधिक समय व्यतीत होने पर भिक्षा मिली थी। किस तिथि को भिक्षा प्राप्त हुई थी, इसका उल्लेख “वसुदेवहिण्डी और हरिवंशपुराण" में नहीं हुआ है। वहाँ पर केवल संवत्सर का ही उल्लेख है। पर खरतरगच्छबृहद्गुर्वावली", त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्त" और महाकवि पुष्पदन्त के महापुराण में यह स्पष्ट उल्लेख है कि अक्षय तृतीया के दिन पारणा हुआ। श्वेताम्बर ग्रन्थों के अनुसार ऋषभदेव ने बेले का तप धारण किया था और दिगम्बर ग्रन्थों के अनुसार उन्होंने छह महीनों का तप धारण किया था, पर भिक्षा देने की विधि से लोग अपरिचित थे। अत: अपने आप ही आचीर्ण तप उत्तरोत्तर बढ़ता चला गया और एक वर्ष से अधिक अवधि व्यतीत होने पर उनका पारणा हुआ। श्रेयांसकुमार ने उन्हें इक्षुरस प्रदान किया।
तृतीय आरे के तीन वर्ष साढे आठ मास शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव दस हजार श्रमणों के साथ अष्टापद पर्वत पर आरूढ हुए और 'उन्होंने अजर-अमर पद को प्राप्त किया, जिसे जैनपरिभाषा में निर्वाण या परिनिर्वाण कहा गया है। शिवपुराण में अष्टापद पर्वत के स्थान पर कैलाशपर्वत का उल्लेख है। जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति , कल्पसूत्र", त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्त", के अनुसार ऋषभदेव की निर्वाणतिथि माघ कृष्णा त्रयोदशी है। तिलोयपण्णत्ति एवं महापुराण के अनुसार माघ कृष्णा चतुर्दशी है। विज्ञों का मानना है कि भगवान ऋषभदेव की स्मृति में श्रमणों ने उस दिन उपवास रखा और वे रातभर धर्मजागरण करते रहे। इसलिये वह
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