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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक अग्रपरिमाण का वर्णन किया गया था । इसका पद परिमाण ६९ लाख पद माना गया है।
3. वीर्यप्रवाद- इसमें सकर्म एवं निष्कर्म जीव तथा अजीव के वीर्यशक्तिविशेष का वर्णन था । इसकी पद संख्या ७० लाख मानी गई है। 4. अस्तिनास्तिप्रवाद पूर्व- इसमें वस्तुओं के अस्तित्व तथा नास्तित्व के वर्णन के साथ- साथ धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों का अस्तित्व और खपुष्प आदि का नास्तित्व तथा प्रत्येक द्रव्य के स्वरूप से अस्तित्व एवं पररूप से नास्तित्व का प्रतिपादन किया गया था। इसका पदपरिमाण ६० लाख पद बताया गया है 1
5. ज्ञानप्रवादपूर्व- इसमें मतिज्ञान आदि ५ ज्ञान तथा इनके भेद-प्रभेदों का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था। इसकी पदसंख्या १ करोड़ मानी गई है। 6. सत्यप्रवादपूर्व- इसमें सत्यवचन अथवा संयम का प्रतिपक्ष (असत्यों के स्वरूपों) के विवेचन के साथ-साथ विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया था । इसमें कुल १ करोड़ और ६ पद होने का उल्लेख मिलता है।
7. आत्मप्रवादपूर्व- इसमें आत्मा के स्वरूप उसकी व्यापकता, ज्ञातृभाव तथा भोक्तापन संबंधी विवेचन अनेक नयमतों की दृष्टि से किया गया था । इसमें २६ करोड़ पद माने गये हैं ।
8. कर्मप्रवादपूर्व- इसमें ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का, उनकी प्रकृतियों, स्थितियों, शक्तियों एवं परिमाणों आदि का बंध के भेद - प्रभेद सहित विस्तारपूर्वक वर्णन था । इस पूर्व की पदसंख्या १ करोड़ ८० हजार पद बताई गई है।
9. प्रत्याख्यानप्रवादपूर्व- इसमें प्रत्याख्यान का, इसके भेद-प्रभेदों के साथ विस्तार सहित वर्णन किया गया था। इसके अतिरिक्त इस नौवें पूर्व में आचार संबंधी नियम भी निर्धारित किये गए थे । इसमें ८४ लाख पद थे। 10. विद्यानुवादपूर्व- इसमें अनेक अतिशय शक्तिसम्पन्न विद्याओं एवं उपविद्याओं का उनकी साधना करने की विधि के साथ निरूपण किया गया था। जिनमें अंगुष्ठ प्रश्नादि ७०० लघु विद्याओं, रोहिणी आदि ५०० महाविद्याओं एवं अन्तरिक्ष, भौम, अंग, स्वर, स्वप्न, लक्षण, व्यंजन और छिन्न इन आठ महानिमित्तों द्वारा भविष्य जानने की विधि का वर्णन किया गया था। इस पूर्व के पदों की संख्या १ करोड़ १० लाख बताई गई है। 11. अवन्ध्यपूर्व - वन्ध्य शब्द का अर्थ है निष्फल अथवा मोघ । इसके विपरीत जो कभी निष्फल न हो अर्थात् जो अमोघ हो उसे अवन्ध्य कहते हैं । इस अवन्ध्यपूर्व में ज्ञान, तप आदि सभी सत्कर्मों को शुभफल देने वाले तथा प्रमाद आदि असत्कर्मों को अशुभ फलदायक बताया गया था । शुभाशुभ कर्मों के फल निश्चित रूप से अमोघ होते हैं, कभी किसी भी दशा में निष्फल नहीं होते। इसलिए इस ग्यारहवें पूर्व का नाम अवन्ध्यपूर्व रखा गया।
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