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________________ [ 238 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङक कारण घोर कष्ट उठाने तथा असमय में ही मृत्यु का ग्रास बनने का वर्णन है। सातवें अध्ययन में उम्बरदत्त द्वारा पूर्वभवों में मांसाहार एवं मदिरा सेवन करने के कारण वर्तमान भव में अनेक शारीरिक रोगों से पीड़ित होने का वर्णन है। आठवें अध्ययन में शौरिदत्त का वर्णन है। पूर्वभवों में पशुपक्षियों का मांस पकाने तथा वर्तमान भव में मछली का व्यापार करने, उसका सेवन करने के कारण गले में मछली का कांटा फंस जाने के कारण दारुण दु:ख एवं असाध्य वेदना सहने का वर्णन है। नवम अध्ययन में देवदत्ता द्वारा पूर्वभवों में स्त्रियों को जलाकर मारने तथा वर्तमान भव में अपनी सासू की हत्या के कारण दारुण वेदनाएँ भोगने का वर्णन है। दसवें अध्ययन में सार्थवाह की पुत्री अंजू का वर्णन है। पूर्वभव में उसके वेश्या होने के कारण अन्त समय तक कामभोगों में आसक्त रहने के कारण वहाँ से निकलकर छठी नरक में उत्पन्न हुई तथा वहाँ आयुष्य पूर्ण होने पर वर्तमान में अंजू के रूप में जन्म लिया। पूर्वकर्मों तथा विषय भोगों में प्रगाढ़ आसक्ति के कारण उसे वर्तमान भव में योनिशूल जैसी महावेदना को भोगना पड़ा। इस तरह सभी अध्ययनों में पूर्वभव एवं वर्तमान भव में किए गए अशुभ कर्मों के कारण वर्तमान भव में दारुण वेदनाएँ भोगने का वर्णन है। इस दु:खविपाक से हम निम्नलिखित प्रेरणाएँ एवं शिक्षाएँ ग्रहण कर सकते १. सत्ता प्राप्त होने पर उसका दुरुपयोग न करें। २. पति की आज्ञा से मृगाराणी ने दुःसह दुर्गन्धयुक्त उस पापी मृगापुत्र की भी सेवा परिचर्या की। यह कर्त्तव्यनिष्ठा एवं पतिपरायणता का अनुपम आदर्श है। ३. जन्म-जन्मांतर तक पापाचरण के संस्कार चलते हैं इसी प्रकार धर्म संस्कार की भी अनेक भवों तक परम्परा चलती है। ४. मांसाहार में आसक्त जीवों को अनेक भवों तक कष्ट भोगने पड़ते हैं। ५. अंडों का व्यापार एवं आहार, पंचेन्द्रिय की हिंसा, मदिरा सेवन आदि प्रवृत्तियों वाला जीव प्राय: नरकगामी होता है। ६. चौर्य प्रवृति भी अच्छी नहीं है। चोरी करने वाला सदैव भयाक्रांत एवं संकटग्रस्त रहता है। ७. व्यसन से अनेक कष्ट उठाने पड़ते हैं। अत: हमें व्यसनमुक्त जीवन जीना चाहिएँ ८. रूई में लपेटी हुई आग जिस तरह छुप नहीं सकती उसी तरह गुप्त पाप भी एक दिन कई गुना होकर प्रकट हो जाता है। अत: पाप को प्रकट कर शुद्धि कर लेनी चाहिएँ ९ दूसरों को दु:ख देने में आनंद मानने वाला स्वयं भी प्रतिफल में दुःख ही प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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