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________________ विपाक सूज : एक परिचय *श्री जम्बू कुमार जैन विपाक का अर्थ होता है- फल या परिणाम। विपाक सूत्र में सत्कर्मों का फल सुखरूप तथा दुष्कर्मो का फल दुःखरूप प्रतिपादित किया गया है। दु:खविपाक एवं सुखविपाक दोनों के दश–दश अध्ययनों द्वारा कर्म-फल को सोदाहरण स्पष्ट कर पापकर्मों के परित्याग एवं सत्कर्मो के उपादान की प्रेरणा की गई है। श्री जैन सिद्धान्त शिक्षण संस्थान, जयपुर के पूर्व छात्र एव वरिष्ठ स्वाध्यायी श्री जम्बूकुमार जी ने विपाकसूत्र के प्रतिपाद्य को संक्षेप में स्पष्ट किया है। -सम्पादक अंगसूत्रों में विपाक सूत्र ग्यारहवाँ अंग सूत्र है। इसके दो श्रुत स्कंध हैं- १. सुख विपाक और २ . दुःख विपाक। दु:ख विपाक में पाप कर्मों का तथा सुख विपाक में पुण्य कर्मों का फल प्रतिपादित किया गया है। किस प्रकार का कर्म करने पर किस प्रकार का फल प्राप्त होता है, यही विपाक सूत्र का मुख्य प्रतिपाद्य विषय है। अशुभ कार्य का फल कभी सुखद नहीं होता तथा शुभ कार्य का फल कभी दुःखद नहीं होता। बबूल का पेड़ बोकर उससे आम प्राप्त नहीं किए जा सकते अर्थात् कर्म के अनुसार ही फल प्राप्त होता आचार्य वीरसेन ने कर्मों के उदय एवं उदीरणा को विपाक कहा है। आचार्य पूज्यपाद ने विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक को विपाक कहा है। आचार्य अभयदेव ने पुण्य-पाप रूप कर्मफल का प्रतिपादन करने वाले सूत्र को विपाक सूत्र कहा है। समवायांगसूत्र में विपाकसूत्र को सुकृत और दुष्कृत कर्मों के फल (विपाक) को बतलाने वाला आगम कहा गया है। स्थानांग में विपाकसूत्र का नाम कर्म विपाकदशा प्रयुक्त हुआ है। विपाकसूत्र में कर्म फल की बात बतलायी गई है, अत: कर्म के संबंध में जानकारी आवश्यक है। राग-द्वेष से युक्त संसारी जीव में प्रतिसमय परिस्पदंन रूप जो क्रिया होती रहती है, उसको सामान्य रूप से पाँच रूपों में मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग में वर्गीकृत कर सकते हैं। इनके निमित्त से आत्मा के साथ कर्म-वर्गणा के अचेतन पुद्गल परमाणु आते हैं और वे राग-द्वेष का निमित्त पाकर आत्मा के साथ बंध जाते है, इसे कर्म कहते हैं। संक्षिप्त में कहें तो मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग से जीव द्वारा जो किया जाता है, उसे कर्म कहते हैं। जब तक आत्मा के साथ कर्म लगे रहते हैं तब तक जीव अनेक जन्म धारण कर इस संसार सागर में गोते लगाता रहता है अर्थात् पुनर्जन्म लेता है। जब सम्पूर्ण कर्मों का क्षय हो जाता है तो वह मुक्त हो जाता है, फिर उसे जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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