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प्रश्नव्याकरण सूत्र प्रकार के उपद्रवों से रहित, अचल अक्षय पद प्रदान करने वाला, उत्तम मुनियों द्वारा आचरित और उपदिष्ट है। कल्याण का कारण, कुमारादि अवस्थाओं में भी विशुद्ध रूप से आराधित व पालित है, शंका रहित है। निर्भीकता प्रदाता, चित्त की शांति का स्थल और अविचल है। तप और संयम का मूल आधार, पाँच महाव्रतों में विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण तथा पाँच समिति-तीन गुप्ति से रक्षित है। दुर्गति के मार्ग को अवरुद्ध करने एवं सद्गति के मार्ग को प्रशस्त करने वाला और लोक में उत्तम बताया गया है।
इस व्रत को कमलों से सुशोभित तालाब से उपमित एवं पाल के समान धर्म की रक्षा करने वाला बताया है। विशाल वृक्ष के स्कंध के समान यह धर्म का आधार रूप एवं अनेक निर्मल गुणों से युक्त है। इसके भंग होने पर विनय, शील, तप आदि गुणों का समूह फूटे घड़े की तरह संभग्न, आटे
की तरह चूर्ण, तोड़ी हुई लकड़ी की तरह खण्डित एवं अग्नि द्वारा जलकर बिखरे काष्ठ के समान विनष्ट हो जाता है— इस प्रकार ब्रह्मचर्य का माहात्म्य प्रकट करते हुए अंत में वह ब्रह्मचर्य भगवान है' इस प्रकार गुण उत्कीर्तन द्वारा स्वयं वीतराग भगवंतों ने ब्रह्मचर्य व्रत के महिमा मण्डित होने का प्रस्तुत सूत्र में उल्लेख किया है। इसी के साथ ब्रह्मचर्य आराधना का फल, ब्रह्मचारी के आचरणीय और अनाचरणीय का निरूपण, ब्रह्मचर्य-विघातक निमित्त एवं ब्रह्मचर्यरक्षक नियमों के वर्णन के साथ, ब्रह्मचर्य रक्षक ५ भावनाओं यथा--- विविक्त शयनासन, स्त्रीकथा-वर्जन, स्त्रीरूप-निरीक्षण वर्जन, पूर्वभोग चिंतन-त्याग और प्रणीत भोजन-वर्जन का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है।
जो मुनिजन इसको तीनों योगों से शुद्धिपूर्वक पाँच भावनाओं सहित मरण पर्यन्त पालते हैं उनके अशुभ अध्यवसाय रुक जाते हैं, नवीन पाप कर्मों का बंध बंद हो जाता है, संचित कर्मों की निर्जरा होने लगती है। समस्त अरिहंत भगवंतों ने इसका पालन किया है, उन्हीं के कथनानुसार भ. महावीर ने भी इसका कथन किया है। पंचम अध्ययन-पंचम संवर द्वार 'परिग्रह त्याग'
प्रस्तुत अध्ययन में सूत्रकार ने अपरिग्रही श्रमण का स्वरूप प्रकट करते हुए कहा कि जो मूर्छा-ममत्व भाव से रहित है, इन्द्रिय संवर और कषाय संवर से युक्त है एवं आरंभ-परिग्रह तथा क्रोध, मान, माया, लोभ से रहित है वही श्रमण होता है। जो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित शाश्वत सत्य है, उसमें शंका-कांक्षा रहित होकर हिंसादि से निवृत्ति करनी चाहिए। इसी प्रकार निदान रहित होकर, अभिमान से दूर रहकर निर्लोभ होकर, मूढ़ता त्याग कर जो अपने मन, वचन और काय को संवृत करता हुआ श्रद्धा करता है वही साधु है। इस प्रकार साधु का स्वरूप निरूपण करने के पश्चात् इस संवर द्वार को धर्मवृक्ष का रूपक दिया है। इसमें साधुओं को खाद्य पदार्थों का संचय कर
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