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|प्रश्नव्याकरण सूत्र
9231] इसके पश्चात् इस संवर द्वार में अहिंसा को प्रथम धर्म बताते हुए कहा है कि यह देव, मनुष्य और असुरादि लोकों में दीप के समान प्रकाशक और सबकी शरण एवं आधारभूत है। अहिंसा के गुण निष्पन्न साठ नामों का उल्लेख करने के साथ इसे जीव मात्र के लिए क्षेमंकरी बताया है, क्योंकि अहिंसा भगवती अपरिमित ज्ञानी–त्रिलोक पूज्य तीर्थंकरों द्वारा सुदृष्ट, अवधि ज्ञानियों द्वारा ज्ञात, पूर्वधारियों द्वारा पठित, ज्ञान-तप-लब्धिधर साधकों द्वारा अनुपालित और उपदिष्ट है। इसी के साथ प्रकट किया है कि इसके रक्षण हेतु आहार शुद्धि परमावश्यक है। अतः गृहीत आहार निर्दोष विधिपूर्वक नवकोटि परिशुद्ध, उद्गम उत्पादन व एषणा दोष से रहित होना चाहिए। अहिंसा व्रत की रक्षार्थ ५ भावनाओं का वर्णन भी उपलब्ध है। इसके अंतर्गत ईर्या समिति, मनः समिति, भाषा समिति, एषणा समिति और आदान-निक्षेपणा समिति के पालन एवं 'धिइमया मइमया' अर्थात् धैर्य और विवेक का पालन अहिंसा साधना के लिए परमावश्यक होने का सूत्रकार द्वारा उल्लेख किया गया है।
अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार फरमाते हैं कि इस संवर द्वार को प्रत्येक मुनिजन को उपयोग पूर्वक पाँच भावनाओं सहित जीवन पर्यन्त पालन करना चाहिए। पालन में यदि परीषह और उपसर्ग आयें तो धैर्यपूर्वक सह लेना चाहिए, क्योंकि यह नवीन कर्मों के आस्रव को रोकता है। अर्हन्त भगवंतों ने स्वयं इसे जीवन में उतार कर ही साधक को धारण करने, सेवन करने का उपदेश दिया है। भ. महावीर ने इसकी प्रशंसा की है तथा देव, मानुषादि की परिषदा में देशना की है अत: यह धर्म द्वार प्रमाण प्रतिष्ठित है और मंगलमय है। द्वितीय अध्ययन-द्वितीय संवर द्वार 'सत्य'
इस अध्ययन में सर्वप्रथम सत्य के स्वरूप का निरूपण करते हुए सत्य की महिमा का वर्णन किया गया है। इसके अन्तर्गत सदोष सत्य का त्याग और बोलने योग्य वचनों का स्वरूप प्रदर्शित किया गया है। सत्य सभी के लिए हितकर, मितकर, व्रतरूप और सर्वज्ञों द्वारा देखा और परखा गया होने से शंका रहित है। सत्यसेवी ही सच्चा तपस्वी है, इसे स्वर्ग व अपवर्ग का मार्ग कहा है। घोर संकट में पड़े हुए मनुष्य की 'सत्य' देवता की तरह रक्षा करता है। सत्यनिष्ठ को आग जला नहीं सकती, न वह समुद्र में डूबता है। वह भीषण विपत्तियों से भी सहज में ही छुटकारा पा लेता है। सत्य सभी के लिए अर्चनीय, पूजनीय, आराधनीय माना गया है। सत्य को महासागर से भी अधिक गंभीर, मेरू से अधिक स्थिर, चन्द्र से अधिक सौम्य एवं निर्मल, सूर्य से अधिक तेजपुंज उपमित किया है। वर्जनीय सत्य के भी ११ रूप प्रदर्शित किये हैं। सूत्र में १० प्रकार के सत्य, १२ प्रकार की भाषा और सोलह प्रकार के वचनों का अंकन है। सत्य धर्म के रक्षणार्थ भी ५ भावनाओं-अनुवीचि भाषण (अक्रोध या क्रोधनिग्रह), निर्लोभता, निर्भयता
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