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________________ प्रश्नव्याकरण भाव, अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार द्वारा फरमाये गये हैं। 1 द्वितीय अध्ययन - द्वितीय आस्रव द्वार 'मृषावाद' इस अध्ययन में सर्वप्रथम मृषावाद का स्वरूप बताया गया है जिसे अलीक वचन अथवा मिथ्याभाषण भी कहा गया है। अलीक वचन का निरूपण करते हुए शास्त्रकार फरमाते हैं कि असत्य दुर्गति में ले जाता है एवं संसार - परिभ्रमण की वृद्धि कराने वाला है । असत्य वचनों का प्रयोग ऐसे मनुष्य ही करते हैं जिनमें गुणों की गरिमा नहीं होती, जो क्षुद्र, तुच्छ या हीन होते हैं, जो अपने वचनों का स्वयं मूल्य नहीं जानते, जो प्रकृति में चंचलता होने से बिना सोचे समझे बोलते हैं। धार्मिक दृष्टि से नास्तिकों, एकांतवादियों और कुदर्शनियों को भी मृषाभाषी बताया गया है। ऐसे वचन स्व और पर के लिए अहितकर होते हैं। अत: संतजन और सत्पुरुष असत्य का कदापि सेवन नहीं करते, क्योंकि असत्य वचन पर पीड़ाकारक होते हैं और पीड़ाजनक वचन, तथ्य होने पर भी सत्य नहीं कहलाते हैं। इस आस्रव द्वार के अंतर्गत मृषावाद के ३० नामों का उल्लेख करने के साथ मृषावादी का पूर्ण परिचय देते हुए क्रोधी, लोभी, भयग्रस्त, हास्यवश झूठ बोलने वाले, चोर, भाट, जुआरी, वेषधारी मायावी, अवैध माप- - तौल करने वाले, स्वर्णकार, वस्त्रकार, चुगलखोर, दलाल, लोभी, स्वार्थी आदि के असत्य बोलने का वर्णन है । इनके अतिरिक्त इसमें अनेक विषयों का वर्णन है, यथा- मृषावाद के चार कारण, मृषावादी नास्तिक वादियों के मत का निरूपण, शून्यवाद, स्कंधवाद के अन्तर्गत-रूप, वेदना, विज्ञान, संज्ञा और संस्कार वर्णन । वायुजीव वाद असद्भाववादी मत, प्रजापति का सृष्टि सर्जन, ईश्वर सृष्टि, एकात्मवाद, अकर्तृत्ववाद, यदृच्छावाद, स्वभाववाद, विधिवाद, नियतिवाद, पुरुषार्थवाद, कालवाद का निरूपण । झूठा दोषारोपण करने वाले निन्दकों, पाप का परामर्श देने वाले जीवघातक हिंसकों के उपदेश - आदेश, युद्धादि के उपदेश - आदेश रूप मृषावाद का सविस्तार विवेचन हुआ है तत्पश्चात् मृषावाद के भयानक फल का दिग्दर्शन कराते हुए बताया है कि इसका फलविपाक सुख वर्जित और दुःख बहुल है, प्रचुर कर्म रूपी रज से भरा हुआ है, महाभंयकर, दुःखकर, अपयशकर, दारुण और कठोर है। वैरकर, अरति, रति, राग- - द्वेष व मानसिक संक्लेश उत्पन्न कराने वाला है । यह अधोगति में निपात व जन्म-मरण का कारण है। यह चिरपरिचित एवं अनुगत है, अतः इसका अंत कठिनता से एवं परिणाम दुःखमय ही होता है। अंत में उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कथन किया है कि इस अलीक वचन को जो तुच्छात्मा, अति नीच एवं चपल होते हैं, वे ही बोलते हैं, जिसका फल विपाक जीव पल्योपम एवं सागरोपम प्रमाण काल तक भोगता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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