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जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क | पूर्वापर विरोध तथा युक्तिबाध ही होता है।
नियुक्तिकार भद्रबाहु कहते है- 'तप–नियम ज्ञान रूप वृक्ष के ऊपर आरूढ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञानकुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर अपने बुद्धि-पट में उन सकल कुसुमों को झेलकर प्रवचनमाला गूंथते हैं।
तीर्थकर केवल अर्थ रूप में उपदेश देते हैं और गणधर उसे ग्रन्थबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं। अर्थात्मक ग्रन्थ के प्रणेता तीर्थकर होते हैं। एतदर्थ आगमों में यत्र तत्र ‘तस्स णं अयमठे पण्णत्ते' (समवाय) शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन आगमों को तीर्थंकर प्रणीत कहा जाता है। यहाँ पर यह विस्मरण नहीं होना चाहिए कि जैनागमों की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से ही नहीं है, अपितु उसके अर्थ प्ररूपक तीर्थकर की वीतरागता एवं सर्वार्थ साक्षात्कारित्व के कारण है।
जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येक बुद्ध निरूपित आगम भी प्रमाण रूप होते हैं। गणधर केवल द्वादशांगी की ही रचना करते हैं। अंग बाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं।
यह भी माना जाता है कि गणधर सर्वप्रथम तीर्थंकर भगवान के समक्ष यह जिज्ञासा अभिव्यक्त करते हैं कि भगवन! तत्त्व क्या है? 'भगवं कि तत्तं?' उत्तर में भगवान उन्हें 'उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' यह त्रिपदी प्रदान करते हैं। त्रिपदी के फल स्वरूप वे जिन आगमों का निर्माण करते हैं वे आगम अंगप्रविष्ट कहलाते है और शेष रचनाएँ अंगबाह्य। द्वादशांगी अवश्य ही गणधर कृत है, क्योंकि वह त्रिपदी से उद्भूत होती है, किन्तु गणधर कृत समस्त रचनाएं अंग में नहीं आती। त्रिपदी के बिना जो मुक्त व्याकरण से रचनाएं होती हैं वे चाहे गणधरकृत हों या स्थविरकृत, अंगबाह्य कहलाती हैं।
स्थविर दो प्रकार के होते हैं- १. सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी और २. दशपूर्वी।
सम्पूर्ण श्रुतज्ञानी चतुर्दशपूर्वी होते हैं। वे सूत्र और अर्थ रूप से सम्पूर्ण द्वादशांगी रूप जिनागम के ज्ञाता होते हैं। वे जो कुछ भी कहते हैं या लिखते हैं उसका किंचित् मात्र भी विरोध मूल जिनागम से नहीं होता। एतदर्थ ही 'बृहत्कल्पभाष्य' में कहा गया है कि जिस बात को तीर्थकर ने कहा है उस बात को श्रुतकेवली भी कह सकता है। श्रुतकेवली भी केवली के सदृश ही होता है। उसमें और केवली में विशेष अन्तर नहीं होता। केवली समग्रत्व को प्रत्यक्षरूपेण जानते हैं, श्रुतकेवली उसी समग्रत्व को परोक्षरूपेण श्रुतज्ञान द्वारा जानते हैं। एतदर्थ उनके वचन भी प्रामाणिक होने का एक कारण यह भी है कि दशपूर्वधर और उससे अधिक पूर्वधर साधक नियमत: सम्यग् दृष्टि होते हैं। 'तमेव सच्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं' तथा 'णिग्गंथे पावयणे अढे, अयं परमठे, सेसे अणढे' उनका मुख्य घोष होता है। वे सदा निर्ग्रन्थ प्रवचन को आगे करके ही चलते हैं। एतदर्थ उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में
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