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________________ अन्तकृतदशासूत्र का समीक्षात्मक अध्ययन 213 सत्यभामा, सुकालिका, सुकृष्णा, सुजाता, सुभद्रा, सुमनतिका, सुमरूत्त, सुसीमा और श्रीदेवी । राजकुमारों में अचल, अतिमुक्त, अनंतसेन, अनादृष्टि, अनियस, अनिरुद्ध, अनिहत, अभिचन्द्र, अक्षोभकुमार, उवयालि, कांपिल्य, कूपक, गजसुकुमार, गंभीर, गौतम, जालि, दृढनेमि, दारुक, दुर्मुख, देवयश, धरण, प्रद्युम्न, प्रसेनजीत, पुरुषषेण, पूर्णकुमार, मयालि, वारिषेण, विदु, विष्णु, सत्यनेमि, समुद्र, सागर, सारण, स्तिमिता, सुमुख, शत्रुसेन, शांब और हेमवन्त कुमार का वर्णन मिलता है। अंतगडदशासूत्र की कतिपय विशेषताएँ १. चरित्र एवं पौराणिक काव्यों के लिए इसमें बीजभूत आख्यान समाविष्ट I २. राजकीय परिवार के स्त्री-पुरुषों को संयम धारण करते हुए देखकर आध्यात्मिक साधना के लिए प्रेरणा प्राप्त होती है। ३. कृष्ण और कृष्ण की आठ पत्नियों का आख्यान - सम्यक्त्वकौमुदी की कथाओं का स्रोत है। जम्बूस्वामी की आठ पत्नियाँ एवं उनको सम्यक्त्व प्राप्ति की कथाएँ भी इन्हीं बीजों से अंकुरित हुई हैं। ४. कथानकों के बीजभाव काव्य और कथाओं के विकास में उपादान रूप में व्यवहृत हुए हैं। एक प्रकार से उत्तरवर्ती साहित्य के विकास के लिए इन्हें 'जर्मिनल आइडिया' कहा जा सकता है। ५. द्वारिका नगरी के विध्वंस का आख्यान - जिसका विकास परवर्ती साहित्य खूब हुआ है। ६. ललित गोष्ठियों (मित्र मण्डलियों) के अनेक रूप-अर्जुनमाली के आख्यान से प्रकट हैं। ७. प्राचीन मान्यताओं और अन्धविश्वासों का प्रतिपादन यक्षपूजा, मनुष्य के शरीर में यक्ष का प्रवेश आदि के द्वारा किया गया है। ८. अहिंसक के समक्ष हिंसावृत्ति का काफूर होना और अहिंसा वृत्ति में परिणत होना- अर्जुन लौह मुद्गर से नगरवासियों का विध्वंस करता है, किन्तु भगवान महावीर के समक्ष जाकर वह नतमस्तक हो जाता है और प्रव्रज्या ग्रहण कर लेता है। ९. नगर, पर्वत - रैवतक, आयतन सुरप्रिय, यक्षायतन आदि का वर्णन काव्यग्रंथों के लिए उपकरण बना। १०. देवकी के पुत्र गजसुकुमार के दीक्षित हो जाने पर सोमिल ने ध्यानस्थ दशा में उसे जला दिया । अत्यन्त वेदना होने पर भी वह शांत भाव से कष्ट सहन करता रहा, यह आख्यान साहित्य - निर्माताओं को इतना प्रिय हुआ, जिससे 'गजसुकुमार' नामक स्वतन्त्र काव्यग्रंथ लिखे गये । ५२ इस प्रकार अन्तगडदशांग अंग-आगमों में अपना विशिष्ट स्थान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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