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________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र 1731 प्रत्येक शतक एवं उसके प्रत्येक उद्देशक में भी कई बार नये-नये विषयों पर प्रश्न एवं उनके समाधान है। इसमें जो जानकारी है वह अद्भुत है। जीव के गर्भ में आगमन से लेकर, जीवन स्थिति, मरण आदि विविध विषय वर्णित हैं जो आधुनिक विज्ञान के लिए भी शोध हेतु उपयोगी एवं मार्गदर्शक हो सकते हैं। नारक, देव, तिर्यच और मनुष्य इन चारों गतियों के जीवों के विभिन्न पक्षों का इस आगम में वर्णन उपलब्ध है। लोक के एक आकाशप्रदेश में एकेन्द्रियादि जीव प्रदेश परस्पर बद्ध यावत् सम्बद्ध हैं, फिर भी वे एक-दूसरे को बाधा या व्याबाध नहीं पहुंचाते, अवयवों का छेदन नहीं करते। इस तथ्य को समझाने हेतु नर्तकी का उदाहरण दिया गया। जिस प्रकार नाट्य करती हुई नर्तकी पर प्रेक्षकों की दृष्टि पड़ती है, किन्तु वह नर्तकी दर्शकों की उन दृष्टियों को कुछ भी बाधा-पीड़ा उत्पन्न नहीं करती है, इसी प्रकार जीवों के आत्मप्रदेश परस्पर बद्ध, स्पृष्ट यावत् संबद्ध होने पर आबाधा या व्याबाधा उत्पन्न नहीं करते। (श. ११उद्दे. १०) । ___पुद्गल के संबंध में व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में विविध जानकारियाँ हैं। परिणति की दृष्टि से पुद्गल तीन प्रकार के बताये गए-१. प्रयोग-परिणत, २. मिश्र परिणत और विनसा परिणत (शतक ८ उद्देशक १) जीव के व्यापार से शरीर आदि के रूप में परिणत पुद्गलों को प्रयोग-परिणत, प्रयोग और स्वभाव (विनसा) इन दोनों विधियों के द्वारा परिणत पुद्गल को मिश्र परिणत एवं स्वभाव से परिणत पुद्गल को विस्रसा–परिणत कहा गया है। सबसे अल्प पुद्गल प्रयोग परिणत हैं, मिश्र परिणत उससे अनन्तगुण हैं तथा विस्रसा परिणत उससे भी अनन्तगुण हैं। शतक १२ उद्देशक ४ में परमाणु पुद्गलों के संयोग एवं विभाग का निरूपण है। ___ परमाणु के संबंध में शतक १८ उद्देशक १० में कहा है कि परमाणु पुद्गल एक समय में सारे लोक को लांघ सकता है। परमाणु की यह गति विज्ञान के लिए भी अन्वेषणीय है। एक परमाणु में भी वर्ण, गन्ध, रस एवं स्पर्श को स्वीकार किया गया है। शतक १६ उद्देशक १८ में पुद्गल की स्वाभाविक गतिशीलता बतायी है। धर्मास्तिकाय उसका प्रेरक नहीं सहायक है। परमाणु में जीवनिमित्तक गति नहीं होती, क्योंकि परमाणु जीव के द्वारा ग्रहण नहीं किया जा सकता और पुद्गल को ग्रहण किये बिना पुद्गल में परिणमन कराने की जीव में सामर्थ्य नहीं है। यह एक ज्ञातव्य तथ्य है कि भगवती सूत्र अंग आगम होते हुए भी इसमें पश्चात् रचित राजप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना, जीवाभिगम तथा नन्दीसूत्र का अतिदेश करके अनेक स्थलों पर भगवती सूत्र के विवरणों को तथा कहीं सम्पूर्ण उद्देशकों को संक्षिप्त कर दिया गया है। इसके संभावित कारणों की चर्चा करते हुए आचार्य श्री हस्तीमल जी महाराज ने इस प्रकार समाधान किया है- “वीरनिर्वाण संवत् ९८० में सूत्र अन्तिम रूप में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003218
Book TitleJinvani Special issue on Jain Agam April 2002
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherSamyag Gyan Pracharak Mandal
Publication Year2002
Total Pages544
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Canon, & Agam
File Size23 MB
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