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| व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र
प्रतिपादित की गई है, यथा
गौतम - ये जो पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एवं वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीव हैं, इनके आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास को हम न जानते हैं और न देखते हैं।
भन्ते ! क्या ये जीव आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास करते हैं?
भगवान् -हाँ गौतम! ये जीव भी आन, अपान तथा उच्छ्वास और नि:श्वास करते हैं।
श्रमण-निर्ग्रन्थों के सम्मुख जाने पर पांच प्रकार के अभिगमों का श्रावक को पालन करना चाहिए। इन पांच अभिगमों का उल्लेख भगवती सूत्र के नवम शतक के ३३वें उद्देशक में देवानन्दा ब्राह्मणी द्वारा भगवान महावीर के सम्मुख जाते समय हुआ है
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तणं सा देवाणंदा माहणी.. .. समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ, तंजहा- सचित्ताणं दव्वाणं विओसरणयाए अचित्ताणं दव्वाणं अविमोयणयाए, विणयोणयए गायलट्ठीए चक्खुफासे अंजलिपग्गेहणं, मणस्स एकती भावकरणेणं ।
पाँच अभिगम हैं- १. सचित्त द्रव्यों का त्याग २. अचित्त द्रव्यों का त्याग न करना ( किन्तु विवेक रखना) ३. विनय से शरीर को झुकाना ४. भगवान के दृष्टिगोचर होते ही दोनों हाथ जोड़ना ५. मन को एकाग्र करना । यह लोक कितना विशाल है, इसके संबंध में शतक ११ उद्देशक १० में देवों की गति का उदाहरण देकर समझाया गया है, जिसका सारांश यह है कि दिव्य तीव्र गति वाले देव हजारों वर्षों तक गमन करके भी लोकान्त तक नहीं पहुंच सकते, लोक इतना विशाल है।
आत्मा ज्ञान एवं दर्शनस्वरूप है या भिन्न, इस संबंध में भगवती सूत्र का स्पष्ट प्रतिपादन है
आया भंते! नाणे अन्नाणे ?
गोमा ! आया सिय नाणे, सिय अन्नाणे, नाणे पुण नियमं आया ।
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आया भंते दंसणे, अन्ने दंसणे ?
गोयमा ! आया नियमं दंसणे, दंसणे वि नियमं आया ।
( शतक 12, उद्देशक 10, सूत्र 10)
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( शतक 12, उद्देशक 10, सूत्र 16 ) गौतम - भगवन् ! आत्मा ज्ञान स्वरूप है या अज्ञान स्वरूप ? भगवान् - गौतम! आत्मा कदाचित् ज्ञानरूप है, कदाचित् अज्ञान रूप है, किन्तु ज्ञान तो नियम से आत्मस्वरूप है।
गौतम - भगवन् ! आत्मा दर्शनरूप है या दर्शन उससे भिन्न है?
भगवान् - गौतम! आत्मा नियमतः दर्शनरूप है और दर्शन भी नियमत:
आत्मरूप है।
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